पुतलों में जीवन की खोज
पेशे से शिक्षक प्रज्ञा का यह नौ कहानियों वाला पांचवां कथा-संकलन है। मानव इतिहास में हर देश-काल की कट्टर धार्मिकता, अवैज्ञानिकता, उपनिवेशवाद और असमानता के विरुद्ध दर्शन, साहित्य और राजनीति के अपने-अपने विमर्श रहे हैं। इन सब क्रूरताओं के बावजूद कृषि-सभ्यता में कहीं न कहीं, संसाधन के रूप में ही सही, मनुष्य का एक महत्व रहा है।
आज तकनीक, यांत्रिकता और अब कृत्रिम बुद्धि के रूप में उत्पादकता जिस दिशा में जा रही है, उसमें मनुष्य का स्थान निरंतर न्यून होता जा रहा है। वह उद्योग के लिए केवल ईंधन और सत्ता के लिए केवल वोट का नाटक बनकर रह गया है—जैसे आज की यंत्रीकृत कृषि में बैल।
यही तंत्र और यंत्र, अपने मंत्रों से, मानव और मानवेतर समाज, सभ्यता और संबंधों को वशीभूत किए हुए हैं, और उसके जीवन-रस को चूसते जा रहे हैं। भले ही इनके कारणों को सीधे-सीधे पहचाना या इंगित नहीं किया जा सकता, लेकिन जीवन-रस सूख तो रहा है।
मानव जीवन के इसी सूखेपन को ये कहानियां रेखांकित करती हैं। इसलिए भले ही इनके कथानक अलग-अलग प्रतीत होते हों, लेकिन वे निरंतर ‘सूखे काठ में परिवर्तित होते जाने’ की पीड़ा को उजागर करते हैं। कहीं-कहीं कुछ क्षणों के लिए पात्रों में एक चमक, एक कशमकश, एक जुंबिश दिखाई देती है—जैसे किसी ज़ोरदार मोटिवेशनल स्पीकर को सुनने के बाद श्रोताओं में कुछ देर के लिए ऊर्जा आ जाती है। लेकिन जैसे ही वे हाल से बाहर निकलते हैं, अपने देश-काल, व्यवस्था और ज़िंदगी की कठोर सच्चाइयां उन्हें फिर घेर लेती हैं।
हालांकि हर कहानी अपने आप में भिन्न है, फिर भी उनमें रचनाकार की एक वैचारिक निरंतरता प्रवाहित होती है। यह संकलन संकेत देता है कि पुतलों में जीवन का संचार असंभव नहीं है, बशर्ते वे अपनी नियति को स्थायी मानकर स्वीकार न कर लें। और तब, काठ के पुतले केवल पुतले नहीं रहते—वे एक जीवित सत्ता बन जाते हैं।
पुस्तक : काठ के पुतले कहानीकार : प्रज्ञा प्रकाशक : लोकभारती पेपर बैक्स, प्रयागराज पृष्ठ : 167 मूल्य : रु. 295.