जब सामूहिक दु:ख आता है,
तब मिल-जुलकर हम रहते हैं।
फिर आम दिनों में ही क्यों
हरदम लड़ते-भिड़ते रहते हैं?
परतंत्र रहे जब देश,
भाव तब देशभक्ति का जगता है।
मिलते ही आजादी लेकिन क्यों
भ्रष्टाचार पनपता है?
यह सच है—जब भी बाढ़ नदी में आती है,
तब सांप-नेवले एक पेड़ पर रहते हैं।
पर हम मानव भी क्या केवल
दु:ख-कष्टों से ही डरते हैं?
हे ईश्वर! हम इंसानों को जब सुख देना,
तब अनुशासन भी दे देना।
पर यदि सीख न पायें अपने अंकुश में रहना—
तो देकर दु:ख, तुम अपने अंकुश में रखना!
अतिरिक्त नहीं कुछ पल
जब छोटा था, तब बड़े-बड़ों से
अपनी तुलना करता था।
लगता था—मेरे पास अधिक है समय,
सभी से ज्यादा काम कर जाऊंगा,
दुनिया में अपना नाम बड़ा कर जाऊंगा।
इसी गफलत में लेकिन
इतने ज्यादा वर्षों तक रह गया,
कि जब आ गया बुढ़ापा—
सहसा तब महसूस हुआ
जीवन अमूल्य था, जिसे मैंने यूं ही गंवा दिया!
अब बचे-खुचे जो दिन हैं,
उनसे भरपाई करने की कोशिश करता हूं।
पीढ़ी जो आती है नई,—उसे समझाता हूं
‘अतिरिक्त नहीं हैं पास तुम्हारे एक पल!’
जीवन तो सारा अभी पड़ा है आगे,
यदि यह सोचकर, गंवा दिए तुमने कुछ दिन भी—
तो आखिर में केवल पछताते रह जाओगे।
तुम उठा सकते हो सारी दुनिया का भार,
पर अगर आज चूके—
तो दुनिया पर भार बनकर रह जाओगे।
कठिन समय के साथी
यह सच है, जग में सारी चीजें ढलती हैं;
दिन-रात हमेशा आते-जाते रहते हैं।
इसलिये नहीं यह कभी कामना करता हूं
जीवन में हरदम अच्छे दिन ही बने रहें।
पर कभी समय प्रतिकूल शुरू हो जाये जब,
अच्छा करने पर भी परिणाम बुरा आये,
सोना भी हाथ लगाते मिट्टी बन जाये—
हे ईश्वर! ऐसे कठिन समय में भी
मेरे भीतर के सद्गुण नष्ट नहीं होने देना।
जब केवल जरा-सी करने पर बेईमानी
होने वाला हो लाभ मुझे, ऐसे में भी
ईमान नहीं मेरे मन का डिगने देना।
बदले में, चाहे जितना भी दु:ख दे देना।
मैं जैसे पास रखता हूं किताबें दो-चार—
बहुत बोझिल दिन में भी बोर नहीं होने पाता,
वैसे ही, अगर सद्गुण बने रहेंगे साथ मेरे—
तो जंगल को भी मंगलमय कर ही लूंगा।