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फर्क

लघुकथा
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सरस्वती रमेश

अलार्म की आवाज से मेघा की आंख खुल गई। पंद्रह दिन की छुट्टियां कैसे बीत गईं पता ही नहीं चला। शादी के रीति-रिवाजों में उलझी मेघा स्कूल की भागदौड़ जैसे भूल ही गई थी। पर अब फिर से उसे बच्चों की कॉपियों के बीच माथापच्ची करनी पड़ेगी। वह फटाफट उठ गई। अभी सब सो रहे हैं। सासू मां, पतिदेव, देवर। किसी को जगाना उसे ठीक नहीं लगा। वह जल्दी से नहाकर किचन में पहुंची। चाय का बर्तन चढ़ा दिया।

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ससुराल में उसे समझ नहीं आ रहा था कि चाय एक कप बनाये या सबके लिए। लेकिन अभी तो सब सोये हुए हैं। उसे सात बजे ही निकलना है। उसे मम्मी की याद हो आई। जो मेघा से पहले ही उठकर उसका नाश्ता बना देती थीं। पापा भी उठकर बैठ जाते और जब तक भाई उसे बस स्टॉप तक नहीं छोड़ आता था तब तक वो मॉर्निंग वॉक पर भी नहीं जाते थे। सबको मेघा के समय पर निकलने की फिक्र होती थी। उसने सिर्फ अपने लिए चाय बनाकर नाश्ता कर लिया। अब उसे अपने लंच की चिंता हुई। मम्मी होती तो झट से उसका लंच बनाकर कहती ‘आलू के परांठे हैं। खाकर बताना कैसे बने हैं।’ मगर यहां तो कोई यह भी बताने वाला नहीं है कि लंच में क्या बनाना है। उसने फ्रिज खोला। गोभी रखी हुई थी। गोभी निकाल वह काटने लगी। इस बार सिर्फ अपने लिए बनाना उसे ठीक नहीं लगा। वह सबके लिए सब्जी बनाने लगी। अभी सब्जी में तड़का ही लगाया था कि देखा सात बज गए। अब अगर पांच मिनट भी रुकी तो लेट हो जाएगी। ससुराल ज्यादा दूर नहीं था इसलिए इलाके की जानकारी थी उसे। उसने झट गैस बंद कर दिया। अपना पर्स तैयार किया और चली पड़ी। जाते-जाते सुभाष को धीरे से हिलाकर जगाया और कान में फुसफुसाकर बोली, ‘मैं स्कूल जा रही हूं।’

सुभाष ने आधी नींद में ही अपनी नई नवेली दुल्हन को किस किया और करवट लेकर फिर सो गया। एक बार भी न पूछा, तुमने कुछ खाया या नहीं। शायद नींद के कारण। मेघा बाहर निकल गई। उसे थोड़ा-सा बुरा फील हो रहा था पर फिर उसने व्यावहारिक तरीके से सोचा। उसकी ड्यूटी के लिए रोज-रोज कोई अपनी नींद क्यों खराब करेगा। उसे समझ आ गया था ससुराल और मायके का फर्क। कल से और सुबह उठेगी जिससे अपना लंच भी बना सके।

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