पराभव
अशोक जैन
आफिस से लौटकर घर में घुसते ही मां से सामना हो गया उसका।
‘अरे, मां! कब आईं? बताना तो था न!’ अनमने भाव से मां के पांव छूकर हाथ में पकड़ा जलेबी का लिफाफा पत्नी को पकड़ाते हुए जैसे वह बुझ-सा गया था।
‘मैंने पत्र लिखकर तुमसे पूछा भी था, पर तुमने जवाब ही नहीं दिया!’
‘तो...!’
‘आशे गांव आया था। ले आया। बोला, तुम अकेली क्या करोगी यहां? चलो मेरे साथ...’
‘इतना बड़ा फैसला और मुझसे जिक्र भी नहीं!’ उसकी तल्ख़ आवाज़ से मां को आगत की चिंता हो गई।’
‘कहां है आशे?’ उसने थोड़ा संयत होने की कोशिश की।
‘कुछ राशन लेने गया है बाज़ार। आता ही होगा।’
उसने अपने कमरे का रुख़ किया। कपड़े बदले और थोड़ा सहज होने का प्रयास करने लगा।
‘गांव में फिर...! कैसे...?’
‘फिलहाल ताला लगाकर चाबी पड़ोस में दे आयी हूं।’
वह अवाक देखता रह गया। तभी आशे आ गया- ख़ाली हाथ।
‘भैया, नमस्कार।’
बड़के ने जवाब नहीं दिया तो वह मां की ओर मुड़ा—
‘चलो, मां। सामान नीचे आटो में ही रखा है।’
‘अच्छा बेटे।’ बड़के की ओर देखकर मां बोली,
‘कभी-कभार आते-जाते रहना। अब यही हूं, आशे के पास।’ उसने दृढ़ता से अपनी बात रख दी।
उसे लगा कि उसे छोटे की नज़रों के सामने और भी छोटा बना दिया गया है।