शारदा बी अकेली पड़ गई। उम्र अभी हावी नहीं हुई थी। पति की मौत के बाद गांव में ही रहने का उसका फैसला उस पर ही भारी पड़ा था। बेटा शहर चला गया नौकरी करने और बेटी पहले ही ससुराल जा चुकी थी। बेटे द्वारा भेजा गया मनीआर्डर मिलने लगा था, जिससे उसकी रोजमर्रा की जिंदगी चल रही थी।
बेटी कई बार गुहार लगा चुकी थी, हमारे साथ रहो आकर। क्यों अकेली पड़ी हो यहां! शहर में जगह न सही हमारे यहां कस्बे में खूब जगह है। पशु हैं, छोटे बच्चे हैं। मन लगा रहेगा आपका—लेकिन वह हर बार टालमटोल कर जाती।
तीन दिनों से आ रहे बुखार ने जैसे शारदा बी को अंदर तक हिला दिया। उसने निर्णय किया कि वह बेटी के पास ही जायेगी।
रिक्शे वाले को बुलवाकर अटैची में कुछ जोड़ी कपड़े और सामान रखा और बस अड्डे की ओर चल पड़ी ।
आधे रास्ते में एकाएक उसने रिक्शा वाले को वापस मोड़ने को कहा।
‘क्यों बी! अड्डे नहीं जाना क्या?’
‘नहीं रे! वापसी घर चल। बेटी के घर जाकर रहना अच्छा नहीं लगता।’
‘सो तो है बी!’
रिक्शा मुड़कर वापसी लौट आया। शारदा बी को लौटते देख मोहल्ले की औरतों में चर्चा होने लगी।
अगले सप्ताह सभी ने जाना कि शारदा बी ने पास ही के एक प्राइमरी स्कूल में सेविका की नौकरी पा ली थी।
अब उन्हें बेटे के मनीआर्डर न आने की चिंता नहीं रहती।

