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बेटियां

कविता
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सुभाष रस्तोगी

बेटियां—

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धूप होती हैं,

घर के हर कोने-अंतरे को

जगमग कर देती हैं।

घर को झाड़-पोंछकर

पिकासो की किसी दुर्लभ पेंटिंग में

बदल देती हैं।

बेटियां—

अन्नपूर्णा होती हैं,

घर के हर छूछे बर्तन को

अन्न-जल से भर देती हैं।

बेटियां—

कविता होती हैं,

जीवन की,

कभी-कभी उदास नज़्म भी

बन जाती हैं बेटियां।

एक दिन, बेटियां

अपने घर चली जाती हैं,

और बचपन के दिन

पिटारी में सहेज कर

संग ले जाती हैं।

अकेले में—

बतियाती हैं उनसे,

कभी मुस्कुराती हैं,

तो कभी रोती हैं।

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