राजेंद्र कुमार कनौजिया
घर आये अभी दो दिन ही हुए थे। शाम को मैं घर से बाहर निकल पड़ा, बाज़ार तो लगभग वही था परन्तु कुछ-कुछ परिवर्तन आ गये थे, कुछ नये फूड कॉर्नर जैसे पिज़्ज़ा-हट, मैक-डी, कैफ़े-कॉफी डे आदि।
पहले यहां एक छोटी-सी चाय की दुकान होती थी जहां शाम को समोसे बनते, सुबह जलेबियां, पकौड़ियां। जलेबियों के साथ-साथ दही, पत्ते के दोने में इन्हें खाना फिर गर्मागर्म चाय, आज भी मेरा मन कर रहा था कुछ वैसा ही मिले। मैंने अपने दोस्तों को फ़ोन किया, वर्मा जी तो आ गये , गिरीश को लेट आना था, हम उसी दुकान में थे जहां पहले चाय समोसे खाते थे।
वो छोटी-सी चाय की गुमटी, एक रेस्टोरेंट में तब्दील हो गई थी। पहले वाले लाला जी अब तस्वीर में तुलसी माला डाल कर लटके थे, उनकी जगह पर उनका वो मोटा-सा बेटा बैठा था।
हमने एक-दूसरे का हालचाल पूछा, चाय-समोसे का आर्डर कर दिया था। हम अपने बीते हुए कल को याद कर रहे थे, कैसे समय निकल गया बालों के किनारे सूर्ख हो गये, ज़िन्दगी ने न जाने कितने पन्ने घटाये-बढ़ाये होंगे, अगर उसका बही खाता देखेंगे तो पाएंगे कि नुकसान ज्यादा हुआ फायदा कम।
‘चल छोड़ न यार कब तक रोते रहेंगे’ मैंने कहा।
‘क्या बोलूं यार तुम दिल्ली चले गये, यहां मैं भी कुछ बिजी हो गया, यही बिज़नेस का उतार-चढ़ाव, बाबू जी कि अचानक मृत्यु के बाद बड़ा खाली-खाली सा रहता है।’
‘तू शादी कर डाल, सब कुछ ठीक हो जाएगा। एक और साथी मिलेगा, फिर कहते हैं कि पत्नी अपना भाग्य साथ लेकर आती है।’ मैंने बोल तो दिया था पर मैं जानता था, ‘देखता हूं इस बार शायद कोई बात बन ही जाये।’
‘सब अच्छा ही होगा भगवान पर भरोसा रखो, लगता है, मैं सब को मिठाई खिलाकर ही वापस जाऊंगा।’ मैंने खुश हो कर कहा
‘और सुना यार बाकी सब कुछ कैसा चल रहा है, काम-काज।’ वर्मा बोला।
‘क्या कहूं सरकारी नौकरी है, रोज वही खिच-खिच आज देर शाम जाना है, कल सुबह जल्दी आना है, थोड़ी-सी गलती की झेलो, ऊपर से बड़ा शहर बड़ी परेशानियां, चल छोड़ मेरी।’
‘बस पार छोड़ दुखड़े, तूने रीयूनियन के प्रोग्राम की तैयारी कर ली, क्या पहनेगा क्या बोलेगा वहां।’
‘क्या पहनना यार बेमतलब के चोचले हैं सारे , यदि हम एक-दूसरे के दुख तकलीफ नहीं बांट सकते।’ अमित ने आकर गाड़ी की चाबी टेबल पर फेंकी। ‘और सुना भाई रौंदूं, कैसा चल रहा है शिमला में।’
‘सब ठीक है भाई, तू सुना तेरी तो मौज है, मैं रौंदूं ही सही, पर क्या करूं समस्याएं पीछा ही नहीं छोड़तीं।’
‘क्या चाय पी रहे हो यहां, चलो राजकमल रेस्टोरेन्ट में बैठते हैं।’
‘नहीं यार अमित आप दोनों जाओ, मैं घर चलता हूं, मां ने खाना बना लिया होगा, तुम दोनों चले जाओ, कल वैसे भी मिलना ही है, प्लीज़ यार, मां को बुरा लगेगा।’ मेरी बात सुन कर अमित हंसने लगा।
‘चल न यार, एक साथ बैठकर ही दुख हल्का होता है, मैं तो तुम्हें छेड़ रहा था, बस।’ अमित ने बन्दर की तरह कान पकड़े।
मैं वहां से उठ गया, ‘मैं चलता हूं, आप लोग इन्जॉय करो।’
‘इट्स ओके भई, आई एम रियली सॉरी भाई।’ अमित ने हंस कर अपने कान पकड़ लिये। उसके मुंह से शराब की महक आ रही थी।
‘चलो तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं, क्या करूं आज कल में अकेला रहता हूं न।’ अमित ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला, मैं और वर्मा अंदर बैठ गए, कार चल दी।
‘क्यों भाभी-बच्चे कहां गये, अकेला मतलब क्या।’ मैंने पूछा।
बड़ी आलीशान कार थी, शायद फार्चूनर या कोई और, अंदर का एयर कंडिशनर बड़ा अच्छा था, कार में थोड़ी देर में ठंडक लगने लगी थी। म्यूजिक सिस्टम भी कमाल का था, कमाल की क़िस्मत पाई है, भगवान क़िस्मत लिखता है, ऐसा मानने वाले लोग दरअसल कायर ही होते हैं, कुछ लोग सचमुच अपनी मेहनत से आगे बढ़ते हैं।
‘नहीं-नहीं वैसी कोई बात नहीं है, परिवार तो समझो दूर ही रहता है, सब अपने अपने काम में व्यस्त हैं, मस्त हैं, मैं भी अपना काम करता हूं, एक्चुअली मेरी बेटी अमेरिका में मेडिकल में पढ़ रही है, एक ही बच्ची है, रही बात मेरी वाइफ़ की तो वो लंदन में एक फ़ैमिली फ़ंक्शन अटैंड करने पिछले हफ़्ते ही गई है, वैसे भी वो एक एंटरप्रेन्योर है, आना-जाना लगा ही रहता है उसका, मेरी टिकट अगले हफ़्ते है, मिलने जाऊंगा उनसे, थोड़ी आउटिंग ज़रूरी है यार।’
मेरा घर आ गया था, नीचे उतर कर मैंने अमित के हाथों को थामकर उसकी ओर देखा, ‘थैंक्यू डियर, आई रियली मीन इट। मेरी एक सलाह मान, भाभी बच्चों को साथ में रख, देखना तेरी सारी बेकार आदतें छूट जायेंगी, दिस इज माइ सजेसन ओनली टेक केयर।’
अमित ने सिर्फ़ मेरा हाथ पकड़ा था ‘साॅरी यार।’
वर्मा नीचे उतर आया ‘चलते हैं, कल मिलते हैं, कोई काम हो तो बता देना, गाड़ी ले ले काम आसान हो जायेगा।’
‘नहीं भाई, थैंक्यू शहर को महसूस करने के लिए रिक्शा बेस्ट है, चलो गुडनाइट’ मैं मुड़कर चल दिया था।
मां ने कई सारी चीज़ें बनाई थीं, खाना खाकर मैं लेट गया, मां अपने कमरे में सो चुकी थीं, आज ना जाने क्यों मुझे नींद नहीं आ रही थी, जीवन के इतने वर्ष लगाकर क्या मिला।
बहुत पहले से ऐसा ही है, समाज का बंटवारा काम की मेहनत पर है ही नहीं, यदि ऐसा होता तो फिर सबसे ज़्यादा पैसा उस मज़दूर को मिलता जो देश का कोना-कोना बनाता है, सजाता-संवारता है, रंग-रोगन करता है, चमकाता है। फिर टूट-फूट होने पर उस फटे पर तुरपाई भी करता है, ये लोग वही हैं जो कभी लालक़िले को धोते, चमकाते दिखते हैं या कभी ताजमहल की संगमरमर को घिस-घिस कर किसी बादशाह की खूबसूरत याद को चिकना रखते हैं।
पिछले चालीस सालों में वही नामाकूल आम आदमी जैसे कि वो ख़ुद, मतलब संतोष कुमार, बी.ए., एम.ए., समाजशास्त्र कभी पत्नी घुड़क देती है, कभी बॉस तो कभी बच्चों के लिए किये गए सारे प्रयासों में असफलता।
सुना था सफलता की कोई सीढ़ी होती है, पर उम्र के इन तमाम वर्षों में मुझे तो कभी नहीं मिली ऐसी सीढ़ी, कि मेरे बच्चे भी विदेश के नामचीन स्कूलों में पढ़ते, पत्नी विदेश घूमती और मैं सोने की चेन पहने, बड़ी-सी एयरकंडिश्नर वाली कार में सैर करता, रौब झाड़ता।
सबसे खूबसूरत मुझे रोटी का चेहरा लगता रहा, रोटी की ख़ूबसूरती, उसकी सुगंध का में लगभग दीवाना ही रहा, सबसे कोमल मेरे बच्चों का स्पर्श लगता है, बिलकुल कोमल, पवित्र उनके बचपन से लेकर आज तक, सबसे अच्छी दोस्त होती है आपकी पत्नी, हर भले-बुरे में आपका साथ देती है, हर अच्छी बुरी बात को रोज़-रोज़ या अक्सर याद दिलाती है। मां-पिता जी तो किसी आदर्श की तरह साथ चलते हैं, ज़रा भी लड़खड़ाया तो पिता की अदृश्य ने उंगलियों को थाम लिया, ज़रा-सा थक कर बैठा तो मां का हाथ मेरे सिर पर किसी छाया के टुकड़े की तरह ही आ गया, मैं थोड़ा सो सका, थोड़ी ताजगी मिल सकी।
ज़िंदगी बड़ी बेरहम है, जैसे कोई महबूबा आई तो बड़े प्यार से, पर गई तो सब हिला कर गई, लूट ले गई।
कुछ तो लोचा है भाई, दुनिया के इस शो में कभी भी बालकनी सीट तक नहीं पहुंच पाया, वही सबसे नीचे की सीट ही मिली जहां से पिक्चर कुछ साफ़ नज़र ही नहीं आई, कोई काई है जो छंटतीं ही नहीं,कोई अंधेरा है, जिसका कोई भी सूरज नहीं। सुबह सूरज मुंह तक चढ़ आया था, अपने घर की सुबह, हवा में ताजगी है।
मैं ठीक दस बजे बिजली के दफ़्तर पहुंच गया, पर आज एसडीओ ही नहीं आया था, बहुत पूछा, पता किया, रिक्वेस्ट की पर काम नहीं हुआ। लगभग ग्यारह बजे मैं घर पहुंचा, एक बार फिर से दो बजे बिजलीघर चला गया, इस बार बिल जमा हो गया, मैंने अपना परिचय देकर उस एसडीओ का फ़ोन नंबर भी ले लिया।
आज शाम को मुझे अपने कॉलेज के रीयूनियन कार्यक्रम में भाग लेना था, दिन में मैंने मां के लिये कुछ नये कपड़े, दवाइयां, फल, आदि ले लिया, मैं चाह रहा था कि पत्नी से बात कर लूं।
पत्नी परेशान थी, कोरोना वायरस अपने पैर पसार रहा है, दिल्ली में बहुत सारे इलाक़ों में, ख़ासकर पुरानी दिल्ली में, उत्तर प्रदेश में भी काफ़ी सारे केसेस आ रहे थे, मुझे जल्दी घर जाना है, बच्चे परेशान हो रहे थे। कब घर आऊंगा।
पत्नी इस बात से भी चिंतित थी कि शायद कर्फ्यू न लग जाए, फिर आप वहीं फंस जाओगे, पर मैं भी क्या करता, आज रात फ़ंक्शन ख़त्म होने के बाद, कल मुझे निकलना होगा। मैं भी फटाफट अपने परिवार के पास पहुंचना चाहता हूं।
पत्नी ने बताया था आज प्रधानमंत्री कोई घोषणा करने वाले हैं, देखना कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये, उसने ताकीद की थी कि जितनी जल्दी हो वापस आ जाओ। बच्चे बहुत परेशान हो रहे हैं।
शाम को मैं वर्मा के साथ होटल के गोल्डन हॉल में पहुंच गया, वाह क्या ख़ूबसूरती से सजा-धजा हॉल, तेज म्यूज़िक, तेज चलती फिरती लाइटें। बहुत सारे दोस्त, शराब की तेज महक, परफ़्यूम की महक आ रही थी। बहुत दिनों के बाद हम फिर से मिल रहे थे, क्या हम एक-दूसरे को पहचान पायेंगें, मैं कितना बदल गया हूं, तो क्या और सभी लोग भी तो बदल गये होंगे। हम एक-दूसरे को पहचान पायेंगे क्या, कौन-कौन से लोग मिलेंगे यहां, मैंने अपने कपड़े ठीक किये, बालों को ठीक किया, जूते अपनी पैंट के पायचे पर घिस लिये, अंदर स्टेज पर लोगों के नाम बुला रहे थे, जो भी आता, उसकी थोड़ी तारीफ़, थोड़ा मज़ाक़ चल रहा है, एक ओर म्यूज़िक बैंड बज रहा है, सबसे ज़्यादा भीड़ तो शराब के काउंटर पर है, वहीं स्नैक्स भी सर्व हो रहे हैं। सारे पुराने मित्र, कोई तो पहचान में आ रहा था, कोई नहीं, मोटे, पतले, गंजे और बूढ़े।
मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया।
मैं काफ़ी सारे स्नैक्स खा चुका था। खाने के हाल को खोल दिया गया था। लोग खाने को चल पड़े। तभी लगा जैसे मेरे फ़ोन की घंटी बज रही है, वाइब्रेशन मोड पर फ़ोन बज रहा था,
‘लॉकडाऊन लग गया जी’ मेरी पत्नी की घबराहट भरी आवाज़ थी।
‘क्या बोल रही हो’ मैंने पूछा
‘हां जी, अब रहो अपनी अम्मा के साथ, देख लो जल्दी से निकलने की तैयारी करो।’
‘तो ठीक है, मैं देखता हूं, तुम राशन, सब्ज़ी का इन्तज़ाम कर लेना, हर्ष के साथ जाकर गाड़ी में पेट्रोल भरा लेना।’
‘लॉकडाउन मैं कहां जाओगे… आप भी मज़ाक़ करते हो।’ पत्नी हंस रही।
सुबह पता चला, आज जनता कर्फ्यू है, कहीं नहीं जा सकते।
मैं दिन में पत्नी से बच्चों से बात करता रहा, मां के साथ खाना बनवाया, घर की साफ़-सफ़ाई में अच्छा लग रहा था, सोफ़े के कवर, चादरें, पर्दे धो डाले। पता नहीं कैसे घर के हर कोने में एक कोना हमेशा ही अंधेरा-सा रहता है, कभी रोशनी ठीक से नहीं आती, कभी हम उस जगह नहीं पहुंच पाते, कमोबेश यही बात जीवन में है,कभी कुछ छूट गया तो कभी कोई रूठ गया, बनाते, बनाते उम्र निकल गई।
अपने घर में साफ़-सफ़ाई किये हुए बहुत दिन हो गये थे।
पिता जी की तस्वीर, मेरी अपनी बनाई पेंटिंग, मेरे बेटे के बचपन की तस्वीर सब कुछ साफ़ कर ठीक से लगा दिया।
आज मैं भी बड़ा खुश था, मां भी, कोरोना का रोना तो सभी लोग रो रहे थे पर मैं अपने घर पर मां के साथ था।
मुझे समझ में आ रहा था, ये लॉकडाउन लम्बा चलने वाला था, जनता कर्फ्यू के बाद जैसे ही ढील मिली तुरंत ही मां को लेकर अपने घर-परिवार के पास पहुंच गया। सुकून था मां हमारे पास है।
मंदिर बंद थे, फ़ैक्टरी बंद हैं, रास्ते सूने पड़े हैं, गलियों में कोई आवाज़ नहीं आ रही, कभी-कभी कोई सब्ज़ी, फल वाला उधर से गुजर जाता है, सन्नाटा आवाज़ की लकीर में तब्दील हो जाता है, अजीब-सी सुकून भरी तन्हाई, तनाव का एक बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह हवा में झूल रहा है, क्या होगा, कैसा होगा, कौन बचेगा, अस्पतालों में चकाचौंध है, मरघट के रास्ते भी आशंकित, कोई कोरोना का मरीज़ तो नहीं।
दूसरे विश्वयुद्ध से भी ज़्यादा बड़ी तबाही, अनगिनत लोग, बुजुर्ग, बीमार, सांसों की ऐसी मुसीबत, एक एक सांस में तकलीफ़, लॉकडाउन ने सब कुछ जैसे एक बड़ा फ़ुलस्टॉप लगा कर रोक दिया था। घरों में क़ैद लोग, छतों से बाहर झांक लेते कहीं पुलिस का सिपाही तो बाहर नहीं, हाथ मिलाने की तो बात ही नहीं, गले लगा कर रो भी नहीं सकते हैं, जब से मैं यहां आया हूं अलग कमरे में सो रहा हूं, बच्चे दूर से ही खाना दे देते हैं, मां भी अलग ही रहती हैं। कभी-कभी पत्नी हाल पूछ लेती है।
रोज़ ही नम्बर बढ़ रहे हैं, मरीज़ों के लिये तमाम कोशिशों के बावजूद, सड़कों पर घर जाने के लिए निकले हज़ारों लोग सड़कों पर पैदल, साइकिल, ठेलों से सैकड़ों मील दूर चले जा रहे हैं, जिनके लिये ज़रूरी व्यवस्था होनी चाहिए।
मैं पिछले कुछ दिनों में हुई सारी घटनाओं को भूल चुका था, मैं भूल चुका था सब कुछ, लेकिन एक दिन वर्मा के फ़ोन से मुझे उन दिनों की बात फिर याद आ गई।
‘यार अमित बीमार है।’
एक शून्य-सा चारों ओर फैल गया।
‘कैसे?’ मैं इतना ही बोल पाया।
‘लीवर फेलियर, सबसे बड़ी बात, न तो उसके बच्चे हैं और न ही उसकी बीवी, वो बिलकुल अकेला है।
मेरे शरीर से जैसे काटो तो खून नहीं।
‘वैरी सैड यार’ …तुम लोग अपना ध्यान रखना, उसके घर चले जाना।’ मेरी आंखें नम थीं।
जीवन का कुछ पता नहीं, उसे ख़ूबसूरती से जीने की राह बड़ी आसान है, सिर्फ़ दिखावा नहीं। आज इस लॉकडाउन में ईश्वर के बाद जो सबसे बड़ी शक्ति है, वो है आपका परिवार, अपने लोग, जो इस कठिन घड़ी में भी हंस,खेल कर, साथ बैठकर, प्रार्थना करके सम्बल देते हैं, चाहे वो निश्छल प्रेम से हंसती पत्नी हो, उछल-कूद मचाते बच्चे।
समाज में नये नियम, नये प्रतिमान गढ़े जा रहे थे, न परिवार में वो अपनापन बचा था, न ही समाज में बंधुत्व। फिर भी बहुत से लोग इस महामारी के बीच भी लोगों को खाना, पानी, दवा और रहने की जगह की व्यवस्था कर रहे थे, मन में विश्वास है कि एक दिन सारा विश्व सुरक्षित हो जायेगा, सब कुछ ठीक हो जाएगा, शायद पहले से थोड़ा कम,थोड़ा अलग।
रोज़ मनुष्य इस भयावह तरीक़े से मर रहा था, जैसे विदेशी फ़िल्मों में एक साथ हज़ारों लोगों की मृत्यु के दृश्य आते हैं, इंसान अपने ही बनाये किसी पिंजरे में उसी तरह फंसा था जैसे कोई चूहा, कोई अदृश्य शक्ति हमें चुन-चुन कर मार रही थी। कमजोर, बूढ़े, बीमार, असहाय। ईश्वर कोई नाव बनाने की तैयारी में था कि सारी दुनिया ही तमाम कर देगा। हम भी तो हैं इसके ज़िम्मेदार, शायद हम सब, आज नहीं तो कल यदि हम नहीं सुधरे तो विनाश निश्चित है।
पत्नी ने पूछा था क्या हुआ, मैं क्या बताता, बस हाथ से दूर रहने का इशारा किया।
मैं सोच रहा था, पैसा, ताक़त, एटम बम, परमाणु बम सब कुछ भूल गया सारा विश्व, सिर्फ़ अपने आपको, अपने परिवार को बचाने में लगा है। आज सिर्फ़ ज़िंदगी की जंग है, अपनों के क़रीब रह कर, अपनों के साथ रह कर, सोशल डिस्टेंसिंग के साथ।
खिड़की के दरवाज़े खोल कर बाहर देख रहा था, हवा कितनी साफ़ हो गई है, आसमान कई सारे रंगों के साथ चमक रहा था, चिड़िया, मैना, कोयल प्रकृति अपनी ख़ूबसूरती दिखा रही थी, सामने सड़क बिलकुल ख़ाली थी। मां बाहर सूर्य को जल डाल रही थीं।
बाहर सड़क पर मोर नाच रहा था, और मैं खिड़की के जंगलों से उस मोर को देख रहा था या मोर मुझे देख कर नाच रहा था, मैं धीरे से मुस्कुराया और चुपचाप लेट गया।
शायद कल सुबह थोड़ी अच्छी रहे।