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पहाड़ पर काले बादल

कहानी

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चित्रांकन संदीप जोशी
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जो दशा नदी की है, वही दशा गाय की है। जब तक दूध देती रही, उसके मालिक ने अपने खूंटे से उसे बांधे रखा। जब फंडर हो गई तो छोड़ दिया रामभरोसे। राम भी क्या करें, जब गोपाल कृष्ण को ही अपनी गायों की फिकर नहीं। शहर में देखता हूं तो कूड़े के ढेर में मुंह मारती हैं। यहां गांव में देखता हूं तो पेट की खातिर बुरी तरह मार खा रही हैं। जो गाय कभी पूजनीय थी, आज प्रताड़ित है।

प्रातः की आभा फैलने पर जब मैं नित्य नियमानुसार घर से बाहर निकला तो उस सफेद रंग की गाय को खड्ड के आसपास खड़ा पाया। यह रोज का किस्सा है। रात में वह किसी-न-किसी के खेत में मुंह मारती और सुबह खदेड़े जाने पर गांव की सीमा के बाहर खड्ड के मुहाने पर निरीह-सी आकर खड़ी हो जाती या फिर धीरे-धीरे मरती हुई खड्ड में उग आयी घास और जंगली झाड़ियों में अपने खाने लायक कुछ-न-कुछ तलाशती रहती।

गांव के सामने ऊंचा पहाड़ है। उसकी की ओट से मनमर्जी का सूरज निकलता है। पहाड़ के पांव में यह कभी छोटी-सी नदी हुआ करती थी, परंतु अब खड्ड बनकर रह गई है। इसी से कुछ हटकर है मेरा गांव। मूल गांव भी पश्चिमी पहाड़ी की गोद अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद कर रहा है और अब भी कुछ लोग वहां के पुश्तैनी घरों में रहते हैं। एक तरह से हमारा गांव चारों ओर की पहाड़ियों से घिरा है। कुछ पहाड़ करीब हैं तो कुछ दूर। इन बरसाती दिनों में इन पहड़ियों पर हरीतिमा पसर जाती है। यहां अधिकतर चीड़ के वृक्ष हैं... पर्वत-पर्वत... छोटे-मोटे, ठिगने, मझोले, लम्बे। इस साल बरसात कम हुई, पर इन चीड़ों की बला से। मस्त रहते हैं हमेशा। आनंद में झूमते और बांसुरी की तान छेड़ते। यह तो इनसान हैं जिन्हें इनकी लापरवाह, मस्त जिंदगी से भी ईर्ष्या हो आती है और अग्नि की चिंगारी फेंककर इन्हें जला डालने का कुत्सित प्रयास करते रहते हैं। दूसरी ओर नदी क्रमश: मरती जा रही है। हमारे इलाके में इस साल बरसात कम हुई, इसलिए यह चढ़ नहीं पायी। किसी जमाने में यह नदी आजकल छलछलाती, लहलहाती थी। अपने होशोहवास में मैंने खुद यहां दो घराट (पनचक्की) देखे हैं। एक नदी के इस पार गांव की सीमा से लगता और दूसरा कुछ हटकर बहती खड्ड की दिशा में, हमारे और पड़ोसी गांव के मध्य। जहां घराट हुआ करता था, वहां आज एक आलीशान मकान सुशोभित है। मकान के साथ खड्ड की ओर एक मोड़ है और इन दोनों के बीच मकान-मालिक का एक शिखराकार छोटा-सा मंदिर, शिव बाबा का घर। ये मकान-मालिक भी हमारे गांव के ही पड़दादा-लक्कड़दादा के रिश्ते से हैं जिन्होंने शामलात भूमि का सदुपयोग कर डाला है। धीरे-धीरे इस खड्ड में कई मकान और दुकानें बनती चली गईं। गांव के बूढ़े-बुजुर्ग कभी-कभी डराते हैं— ‘खड्ड और नदियां ख्वाजा की मिल्कियत हैं। ख्वाजा अपनी जगह-जमीन नहीं छोड़ता। एक न एक दिन वह सब कुछ बहा ले जाता है।’ पर अब लोगबाग ख्वाजा की परवाह नहीं करते। कारण, वर्षा ही साल दर साल घटती जा रही है और नदी की छाती स्वतः ही सिकुड़ती चली जा रही है। सारा दिन धड़धड़ाते ट्रैक्टर इसकी देह में जहां-तहां घाव कर बजरी, रेता, पत्थर सब निकाल कर लिए जा रहे हैं। अच्छी-खासी लम्बी-चौड़ी नदी सूखकर अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था तक जा पहुंची है। न जाने कितनों के घर बसाये इसने! आज जब वह स्वयं मृतप्राय है, तो कोई उसकी खोज-खबर लेने वाला नहीं। जो भी आता है, कुछ-न-कुछ नोचकर ले जाता है। जिस्म से सारा खून तो चूस लिया, अब हड्डियां भी चिंचोड़ रहे हैं लोग। इसी नदी की उतरती दिशा में एक स्टोन-क्रशर को भी सरकारी मंजूरी मिल चुकी है। नदी-तट की बची-खुची हड्डियां वहां पाउडर में बदली जा रही हैं।

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जो दशा नदी की है, वही दशा गाय की है। जब तक दूध देती रही, उसके मालिक ने अपने खूंटे से उसे बांधे रखा। जब फंडर हो गई तो छोड़ दिया रामभरोसे। राम भी क्या करें, जब गोपाल कृष्ण को ही अपनी गायों की फिकर नहीं। शहर में देखता हूं तो कूड़े के ढेर में मुंह मारती हैं। यहां गांव में देखता हूं तो पेट की खातिर बुरी तरह मार खा रही हैं। जो गाय कभी पूजनीय थी, आज प्रताड़ित है। अमरो तायी बताती है कि लोग गायों को इसलिए नहीं पालते कि कहीं अनजाने में कोई पाप न हो जाए। भैंसे पालते हैं। सच तो यह है कि गाय का दूध पतला होता है और घी का रंग पीला। अमरो तायी से ही मैंने सुना कि वह जब ब्याह के हमारे गांव आयी थी, तब नदी में पानी लबालब भरा रहता था। इसके लिए उन्होंने मुझे बकायदा खड्ड के नदी होने का प्रमाण दिया- ‘अपनी मांउ ते पुच्छेआं। अहे खड्डा च मच्छियां पकड़दियां थियां।’ (अपनी मां से पूछना, हम खड्ड से मछलियां पकड़ते थे)। अमरो तायी ने यह भी खुलासा किया कि बृहस्पतिवार को नदी किनारे आकर ख्वाजा देवता की पूजा की जाती थी, ‘वीरवारा जो खड़ा जाई के ख्वाजे जो पूजदे थे। कड़ाह-परसाद, दलिया चढान्दे थे। नीली झंडी बी हुंदी थी। ख्वाजा बगदी नदी दा देवता है। देणे च आइ जाय तां सारी मुरादां पूरी करी दिंदा है। हिंदुआं दा देवता था ख्वाजा, पर मुसलमानें कब्जा करी लेया।’(बृहस्पतिवार को खड्ड पर जाकर ख्वाजा को पूजते थे। नीली झंडी साथ में ले जाते। ख्वाजा बहती नदी का देवता है। देने में आ जाय तो सारी मुरादें पूरी कर देता है। यह हिंदुओं का देवता था परंतु मुसलमानों ने अपना हक जमा लिया।)

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‘तायी, मुसलमानों ने देवता पर कैसे कब्जा कर लिया?’ मैं उनके कहे पर उलझ-सा गया।

‘ए तां मिंजो नहीं पता पर बब्ब-दादे दे जमाने ते एड़ा ही बोलदे आए।’ तायी ने परंपरा की दुहाई देकर ख्वाजा वाली बात वहीं खत्म करनी चाही परंतु मैं इस नदी के देवता के बारे में और जानना चाहता था।

‘तायी, क्या यह सच है कि ख्वाजा अपनी जगह नहीं छोड़ता?’ मैंने दूसरी गुत्थी सुलझानी चाही।

‘परम सत बच्चा, परम सत... इस दी जमीनांच लोकां ने खड़ा च जेहड़ी बिल्डिंग खड़ी कीती है ना, इक न इक दिन सैह लैणा ही है। देक्खी ल्यां तू।’ (सत्य है। इसकी जमीन पर लोगों ने खड्ड पर ये जो बिल्डिंगें खड़ी की हैं न, देख लेना उसने एक दिन ले लेना है।) मुझे अपने पास बिठाते हुए उन्होंने कहा, ‘तिज्जो मैं पिछले साल दी गल्ल दसदी। स्कूला वल्ल जेड़ी परदेसी दी हट्टी है न, ओत्थी इक बुजुर्ग आया था। बरसाती दे पैहले। तिनी परदेसीए जो चेत्या था, ‘तूं मेरी जमीना पर जेड़ा टप्पर खड़ा कर रेहा है न, ठीक नहीं कर रेहा। मैं तेरे मकाने जो नीं बनणा देणा।’

‘परदेसीएं तिस बुजुर्गे जो पागल समझेआ कने हासी के टाली गया। बच्चा, दरअसल सैह ख्वाजा इ था। परदेसी अपने ग्रां च खडा दे किनारे मकान बनवाइ रेहा था। बरसात आइ तां सैह ढही गया। तां जाइ ने तिस जो होश आई कि ख्वाजा ने तां पैहले ही चेत्या था।’ (मैं तुझे पिछले साल की बात बताती हूं। स्कूल के पास जो परदेसी की दुकान है न, वहां एक बुजुर्ग आया था। उसने परदेसी को चेतावनी दी थी कि वह जो उसकी जमीन पर मकान खड़ा कर रहा है, वह ठीक नहीं है। मैं इसे बसने नहीं दूंगा। परदेसी ने उसकी बातों को हंसी में टाल दिया। दरअसल वह ख्वाजा ही था। बरसात आने पर जब मकान गिर गया, तब जाकर उसे होश आया कि ख्वाजा ने तो उसे पहले ही चेत दिया था।)

अमरो तायी से यह कथा सुनकर जब मैं जाने को उद्दत हुआ ही था कि उनका पोतरा दो कप चाय लेकर आ गया। मजबूरन मुझे चाय के लिए पुनः बैठना पड़ा। चुस्की लेते-लेते तायी ने दूसरी कहानी छेड़ दी।

‘बाज पंडत दे बारे तां तिज्जो पता ही है।’ (बाज पंडित के बारे में तो सुना ही होगा।)

बाज पंडित सामने की पहाड़ी पर बसे गांव के थे। एक जाने-माने तांत्रिक। मैं कई बार उस गांव में गया हूं। बाज की बात छेड़ने पर उनकी और उसी गांव के दो अन्य तांत्रिकों की सिद्ध-कहानियां परत-दर-परत खुलने लगती हैं। उन तांत्रिकों के परिवार वाले कहते हैं कि मृत्यु के बाद उनके पोथे खड्ड में बहा दिए गए थे।

चाय पीते-पीते अमरो तायी ने बाज पंडित द्वारा ख्वाजा को लिखी गई चिट्ठी की कहानी भी सुना दी। यह कहानी मैंने कई बार कई लोगों के मुख से सुनी है। अलबत्ता मामूली-सी हेर-फेर हो जाती है। कथानक यह है—

किसी गांव की बहू दिन-दोपहर खड्ड में कपड़े धोने आयी थी। एक प्रेत उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गया और उसे अपने साथ ले गया। जब उस महिला के पति को अपनी पत्नी की गुमशुदगी का पता चला तो वह बाज के घर जाकर उसकी सेवा में जुट गया। कई दिनों की सेवा करने पर बाज ने उसके वहां आने का कारण पूछा तो उसने अपनी पत्नी के खो जाने का ज़िक्र किया। तब बाज ने अपनी पोथी निकाली और कुछ देर उस पर मनन करने के बाद बताया कि उसकी पत्नी को एक प्रेत उठाकर ले गया है।

‘महाराज उससे छुटकारा दिलाओ।’ उस व्यक्ति ने गुहार लगायी।

‘मैं ख्वाजा के नाम एक पत्र लिख देता हूं।’ बाज पंडित ने कहा। फिर उसे अमावस की रात निर्दिष्ट करते हुए कहा, ‘उस रात बारह से दो बजे के बीच ख्वाजा एक सजे-धजे घोड़े पर इस खड्ड से होकर गुजरेगा। उसके आगे-आगे बैंड-बाजे वाले कई प्रेत होंगे। बिना डरे यह पत्र तुम ख्वाजा को थमा देना। ध्यान रहे कि डर न जाओ। अगर डर गए तो वहीं तुम्हारी मौत हो जाएगी। अत: हिम्मत करके जाना, मैं वायदा करता हूं कि तुम्हें कुछ नहीं होगा।’

उस व्यक्ति ने वैसी ही निडरता का परिचय दिया। पत्र पढ़कर ख्वाजा ने बैण्ड-बाजा बंद करवाया और आवेश में पूछा, ‘तुममें से कौन इसकी पत्नी को उठाकर लाया है? इसी समय मेरे सामने आए।’ वह प्रेत करबद्ध ख्वाजा के समक्ष हाजिर हुआ और झिड़की खाने के बाद दूसरे दिन उस व्यक्ति की पत्नी को खड्ड पर वहीं छोड़ गया, जहां से उसका अपहरण किया था।

कथा-दर-कथा, गांव-दर-गांव। कितना बदल गया है गांव। न वो किस्से, न वो कथाएं। केबल का तार तक बिछ गया है घर-घर, गांव-गांव। सारी कहानियां, सारी हंसी-खुशी एक बक्से में बंद और शहर के लोगों की तरह सब अपने-अपने बाड़ों में बंद। मकान और दुकान, दुकान और मकान। शहर की तरह ईंट-पत्थरों की बस्तियां खड़ी हो रही हैं। गर्मी में तपते, ठंड में ठिठुरते। संयुक्त परिवार का विघटन हो रहा है। एक-एक घर के चार-पांच टुकड़े। टुकड़ों में न रहकर सब अपने लिए स्वतंत्र घर का निर्माण कर रहे हैं। अमरो तायी की दुकान से घर लौटते हुए मैंने अनुमान लगाया कि गांव में जहां बीस घर थे, वहां आज साठ घर हैं परंतु हर घर सूना, बेआवाज, चुपचुप, गुमसुम। एक मुर्दनी-सी पसरी रहती है। ठहाके गुम होते जा रहे हैं। एक मायूसी, एक स्वार्थपरक जीवन।

उसी दिन शाम को अंधेरा घिरते ही गांव के दो युवक बल्लो और करमू हमारे घर आए।

‘घरालेओ घरे ही हो?’ (घरवाले घर में ही हो?)

पिताजी ने हुंकार भरी, ‘हां जी।’

‘देया फेरी दस रपैये। गा छडनी पार।’

पिताजी ने कमीज की जेब से दस रुपये निकाले और उन्हें थमा दिए। उन्होंने मुझे बताया कि जब कभी इस तरह की अनाथ गायें गांव में आकर उजाड़ करती हैं तो चंदा इकट्ठा करके उन्हें किराये के ट्रैक्टर पर ले जाकर कहीं दूर छोड़ आते हैं और यह सिलसिला दो-तीन महीनों तक चला ही रहता है। दूसरे गांव के लोग गाय हमारे गांव की सीमा में छोड़ जाते हैं। फिर वे यहां से कहीं और भेज दी जाती हैं। बल्लो और करमू दोनों शहर में हलवाई का काम करते हैं। दो महीने शहर में लगाते हैं और छह महीने गांव में। जब मन किया चले गए, जब मन किया आ गए। कौन-सी पक्की नौकरी है उनकी। इन दिनों गांव में हैं। सो, समाज-सेवा कर रहे हैं।

रात के नौ बजे के लगभग खाने के बाद मैं टहलता हुआ गांव के बाहर बनी दुकानों तक चला गया। अमरो तायी की दुकान बंद हो चुकी थी। आस-पास की अन्य दुकानों के शटर भी गिर चुके थे। सिर्फ शराब का ठेका और अहाता गुलजार था। वहां रौनक इस समय कुछ अधिक ही हो जाती है। देखा, बल्लो और करमू नशे में टुन्न ठेके से बाहर निकल रहे हैं। करमू मस्ती में गा रहा था...

‘इनांह छोरूआं जो लै समझाई... हो इनांह छोरूआं जो लै समझाइ कि बाट्टा जांदे सीटीयां मारदे।’ (इन छोकरों को समझा लो... आते-जाते रास्तों में सीटियां मारते हैं।)

बल्लो ने उसकी गर्दन को बाहों के घेरे में लेते हुए संगत दी...

‘सीटीयां मारदे हो... हो... हो...।

घर लौटकर टीवी ऑन किया तो खबर आ रही थी की कुल्लू-मंडी में बादल फटे हैं और नदी किनारों पर बने कई घरों व बड़े-बड़े अट्टालिकाओं को वह अपने साथ बहा ले गई है। उधर उत्तराखंड के यमुनोत्री के सिलाई क्षेत्र में बादल फटने से एक निर्माणाधीन होटल के पास मजदूरों का शिविर बह गया।

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