अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी साहित्य में भक्ति की अनेक धाराएं हैं। संत कबीर निर्गुण संत काव्य के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। इस धारा में अनेक कवि शामिल हुए। आज भी ऐसे ही कई पंथ और मिशन हैं, जो निर्गुण निराकार भक्ति धारा का अनुसरण करते हैं। डॉ. प्रद्युम्न भल्ला ‘पूर्ण’ का काव्य-संग्रह ‘जग ढूंढ़ता है जिसको’ भी ऐसे ही एक निरंकारी मिशन के विचार एवं भक्ति के संस्कारों में रमा हुआ काव्य-संग्रह है। संग्रह को गीत खंड, काव्य खंड, ग़ज़ल खंड और मुक्तक खंड में बांटा हुआ है। गीत खंड में फिल्मी धुनों पर लिखे गए गीत हैं।
सभी रचनाओं में निर्गुण भक्ति, सेवा, सत्संग, सिमरण, सतगुरु की महिमा, प्यार, अमन, भाईचारा, मिलवर्तन, नम्रता, नेक कमाई, दया व करुणा का संदेश है। मौजूदा परिवेश में फैलती जा रही संकीर्णताओं के प्रति कवि सजग है। एक बानगी देखिए ‘एक से जिस्म सबका लहू एक सा, किसलिए मजहबी फिर जुनूं है यहां।’ कवि प्रेम व मानवता को प्रतिष्ठित करता है ‘आदमी में हो बस आदमियत, प्यार के हम बनें इक समंदर।’ ग़ज़ल का एक शे’र देखिए ‘प्यार की बाती से जब कोई दिल के दीप जलाता है, हर इक जगह इबादतख़ाना हर घर पूजा घर लगता है।’
कवि कण-कण में अल्लाह और भगवान को देखता है। वह गुरु से मिले हुए ज्ञान को बहुत अहमियत देता है और ज्ञान को कर्म में ढाले बिना इसे बेमानी मानता है। वह इस लोक को सुखी और परलोक को सुहेला करना चाहता है। कवि की भाषा और शिल्प सधा हुआ है। संग्रह में हमें एक हरियाणवी और दो पंजाबी कविताएं भी पढ़ने को मिलती हैं। रचनाओं में लोक में प्रचलित उर्दू के शब्दों का खूब प्रयोग किया गया है।
पुस्तक : जग ढूंढ़ता है जिसको कवि : डॉ. प्रद्युम्न भल्ला ‘पूर्ण’ प्रकाशक : मधुबाला, क्रेजी प्रिंटर, कुरुक्षेत्र पृष्ठ : 126 मूल्य : रु. 150.