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वक्त के दोहे

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ बीजगणित-सी ज़िंदगी, हर दिन जटिल प्रमेय। बस तनाव-संघर्ष ही, जिसमें रहे अजेय॥ मन के आंगन में जगे, महके-महके सत्र। समय-डाकिया दे गया, जब यादों के पत्र॥ चाहे हंसी-मजाक हो, या गम्भीर बयान। काली-उजली सोच का, भाषा ही...
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योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

बीजगणित-सी ज़िंदगी, हर दिन जटिल प्रमेय।

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बस तनाव-संघर्ष ही, जिसमें रहे अजेय॥

मन के आंगन में जगे, महके-महके सत्र।

समय-डाकिया दे गया, जब यादों के पत्र॥

चाहे हंसी-मजाक हो, या गम्भीर बयान।

काली-उजली सोच का, भाषा ही परिधान॥

चटकें जब विश्वास तो, भारी हो हर श्वास।

खोलो मन की खिड़कियां, मिटें सभी संत्रास॥

हुआ जन्म या कर्म से?, तू ऊंचा मैं नीच।

खींचतान चलती रही, सही-गलत के बीच॥

मिलीं जलेबी जिस समय, दस पैसे में चार।

तब कितना समृद्ध था, सिक्कों का व्यवहार॥

राजनीति में देखकर, छल-छंदों की रीत।

कुर्सी भी लिखने लगी, अवसरवादी गीत॥

चलो मिटाने के लिए, अवसादों के सत्र।

फिर से मिलजुल कर पढ़ें, मुस्कानों के पत्र॥

घुल-मिलकर व्यक्तित्व में, बिखरे मधुर सुगंध।

पढ़कर तो देखो कभी, सच के ललित निबंध॥

मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़।

जड़ से जो जुड़कर जिये, हरे रहे वे पेड़॥

बिना कहे ही पढ़ लिया, भीतर का सब सार।

मन की भाषा धन्य है, धन्य शब्द-संसार॥

पिछला सब कुछ भूल जा, मत कर गीली कोर।

कदम बढ़ा फिर जोश से, नई सुबह की ओर॥

स्वस्थ भला कैसे रहे, अपनापन-सम्मान।

भीतर हों जब तल्खियां, चेहरों पर मुस्कान॥

भला आत्मा से अधिक, समझ सका है कौन।

शब्दों की अनुगूंज को, साधे मन का मौन॥

सर्वविदित यह सत्य है, तनिक न कुछ संदेह।

हर पल दीमक क्रोध की, चट करती मन-देह॥

मिल-जुलकर हम-तुम चलो, ऐसा करें उपाय।

अपनेपन की लघुकथा, उपन्यास बन जाय॥

गूगल युग ने क्या किया, छीन लिए अहसास।

छिटक रही संवेदना, चटक रहे विश्वास॥

आना-मिलना आपका, सुख दे गया अपार।

बहुत दिनों के बाद ज्यों, मना लिया त्योहार॥

व्यवहारों में देखकर, जर्जर-से संवाद।

सुख की हर उम्मीद की, दरक रही बुनियाद॥

जिस रंग में भी हो रंगी, सोच हमारी मित्र।

फिर बोली-व्यवहार का, हो वैसा ही चित्र॥

रहे औपचारिक नहीं, अब अपने त्योहार।

हंसी-खुशी-उत्साह संग, हो पहले-सा प्यार॥

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