राजेन्द्र गौतम
झू... ल... ती
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खामोशियों की लाश,
उफ़! आकाश की कमजोर बाहों में।
इस कदर,
हालात ये अब,
रोज बनते जा रहे हैं,
आपके ही दोस्त,
आप अपने मन मुताबिक,
मांग ले आकर,
यहां पर आदमी का गोश्त,
बस्तियां—
तब्दील होती जा रही हैं,
आज फिर से कत्लगाहों में।
एक बारूदी धुएं की,
स्याह चादर ओढ़,
लेटी गमजदा हर खूंट
था बगीचा कल जहां पर,
अब वहां—
झुलसे हुए दो-चार ही हैं ठूंठ,
हाथ बांधे,
आ गए सब कायदे,
संगीन की वहशी पनाहों में।
छिल्ली गाछों की त्वचाएं
टीसते हैं,
हर घड़ी अब घाव खेतों के,
क्षितिज के मैले कंगूरों से,
उतर आते पंख फैला,
गिद्ध प्रेतों-से,
वक्त हंसता घोंप चाकू,
रात की धुंधली हुई,
नमतर निगाहों में।
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