भारतीय समाज विभिन्नताओं का समाज है, जिसमें प्रजाति, जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति के आधार पर अपनी पहचान रखने वाले अनेकानेक समुदायों के लोग देश के विभिन्न अंचलों में वास करते हैं। इनमें भारत के मूल निवासी कहे जाने वाले, समाजशास्त्र की दृष्टि से वर्णावतरित जाति-प्रणाली पर आधारित आदिवासी समाज का भी अहम स्थान है। देखा जाए तो इन आदिवासी समाजों—जिन्हें हम गोंड, संथाल, मुंडा, मीणा आदि अनेक नामों से जानते हैं—का संबंध सिंधु घाटी सभ्यता से रहा है। आर्यों के आगमन से पूर्व इनका सिंधु नदी के सैंधव, गंगा-जमुना के गांगेय, और बहुत पहले लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के सारस्वत प्रदेशों पर आधिपत्य था, जो आर्यों के आगमन और कालखंड में हुए बदलावों के उपरांत हुए विस्थापन के पश्चात वनांचलों में पुनर्वासित होकर आदिवासी के रूप में वनोपज पर जीवन-यापन करने को विवश हुए।
इसमें भी दो राय नहीं कि औपनिवेशिक हिकारत भरे रवैये के चलते इस बहुलतावादी समाज को अलगाववादी भावनाओं और सोच के चलते न केवल देश की आज़ादी से पूर्व, बल्कि आज़ादी के बाद भी निरंतर एक सोची-समझी साज़िश के तहत अनदेखा किया जाता रहा, जबकि देश की आज़ादी के संघर्ष में इन समुदायों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता, जो हमारे इतिहास की अमिट धरोहर है।
लेखक हरिराम मीणा ने पुस्तक में आदिवासी समाज के धर्म, परंपराओं, उनकी संस्कृति, कला, इतिहास, ब्रिटिश कालीन आदिवासी संघर्षों, स्वातंत्र्य आंदोलन में उनकी भूमिका, उनकी अस्मिता और पहचान के संकट, उनके वर्गीकरण, विस्थापन की नियति, पुनर्वास की समस्याओं, शिक्षा के विकास में उनके साथ हो रहे भेदभाव, मीडिया का उनके प्रति दुराव व उपेक्षित व्यवहार, उनके समक्ष आसन्न चुनौतियां तथा आदिवासी जातियों का जिस तरह सिलसिलेवार वर्णन व विशद विश्लेषण किया है, वह अवर्णनीय है।
पुस्तक में लेखक ने वेद, पौराणिक आख्यानों और पारिस्थितिकीय संतुलन की दृष्टि से ऐसे तथ्यपरक उदाहरणों का उल्लेख किया है, जिनसे हम पर्यावरण संरक्षण के तौर-तरीकों सहित बहुत कुछ ऐसा सीख सकते हैं, जिससे हम आज भी अनभिज्ञ हैं। सबसे बड़ी बात यह कि असलियत में यही देश की बची-खुची प्राकृतिक संपदा के रखवाले हैं, जिनके अधिकारों का हम भौतिकवाद के पुरोधा होने के दंभ में अनवरत हनन करते आ रहे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है कि हरिराम मीणा की यह पुस्तक आदिवासी समाज के अनगिनत अनछुए पहलुओं को न केवल उजागर करती है, बल्कि उनकी समस्याओं और चुनौतियों का समाधान भी प्रस्तुत करती है।
पुस्तक : जल जंगल जमीन : भारत का आदिवासी समाज लेखक : हरिराम मीणा प्रकाशक : राजपाल एण्ड संस, नयी दिल्ली पृष्ठ : 272 मूल्य : रु. 475.