सुभाष रस्तोगी
वरिष्ठ साहित्यकार सदाशिव कौतुक सद्य: प्रकाशित कविता-संग्रह ‘आग में झुलसता समय’ में कुल 73 कविताएं संगृहीत हैं जो हमारे समय के कटुतम यथार्थ की तर्जुमानी के रूप में सामने आई है। कवि की मानें तो ‘यह कविताएं अपने समवेत पाठ में उनकी देखी और भोगी कुछ अनुभूतियां हैं, मनुष्यता की पक्षधर कविताएं हैं।’
आग में झुलसता समय के हालात इतने बदतर हो गये हैं कि आदमी की स्थिति मौन खड़े बिजूके की तरह हो गयी है और यही नहीं वह बिना कुछ करे-धरे सब कुछ पाना चाहता है। इसी सत्य को उद्घाटित करती कवि की यह पंक्तियां काबिलेगौर हैं—‘जीवन का रंग-सवाद फीका/ मानव मौन सड़ा बिजूका/ कदम दर कदम बंधी गांठें/ किये बिना सब पाना चाहें/ लगता है…/ बिगड़ रही जीवन की लय/ आग में झुलसता समय।’
यह कविताएं राजनीतिक पाखंड का भंडाफोड़ करते हुए सीधे नेता को कठघरे में खड़ा करते हुए उससे पूछती हैं कि आप शीघ्र जिस पुल को बनाने का आश्वासन दे रहे हैं कि आपके बीस बरस पहले दिये गये इसी पुल को बनाने के आश्वासन का क्या हुआ—‘इस बार भी/ गांव में उतरे हैं नेता/ कसम खाकर आश्वासन दे गये हैं/ जल्द से जल्द पुल बनाने का/ गांव वालों को आज भी याद है/ बीस बरस पहले दिया गया/ यही आश्वासन।’
स्त्रियां हैं जिनके पास खून और आंसुओं से लिखा हुआ अनुभवों का एक बेशकीमती महाकाव्य होता है और स्त्रियां ही सदैव फटे हुए हालातों की तुरपाई करके रिश्तों को, धरती को सरसब्ज बनाए रखती हैं। कवि से ही जानें कैसे—‘स्त्रियों के पास/ खून और आंसुओं से लिखा हुआ/ अनुभवों का महाकाव्य है। वह मर्यादा की सूई में/ मन के धागे को पिरोकर/ दिन-रात करती रहती हैं/ फटे हालातों की तुरपाई/ और बांटती रहती हैं/ खुशियां।’
कवि का मानना है कि रोटी की शक्ति सर्वोपरि है। रोटी यदि अपनी पर आ जाए और कामगार यदि संगठित हो जाएं तो सत्ता को भी धूल चटा सकते हैं। कौतुक सवाल उठाते हैं कि जब पानी ने अपना रंग नहीं बदला, प्रकाश ने अपना रंग नहीं बदला, आकाश ने अपना रंग नहीं बदला, सूरज, चांद-तारों और अंधेरे तक ने अपना रंग नहीं बदला तो मनुष्य ने अपना रंग क्यों बदल लिया।
इस कविता-संग्रह ‘आग में झुलसता समय’ में संगृहीत कविताओं की खासियत कवि के कहन की सादगी में है और समग्रत: यह कवि की सहजानुभूति की कविताएं हैं। लेकिन कहने की सादगी में कथन की वक्ता का यह दृश्य निश्चय ही पाठकों का ध्यान अलग से आकृष्ट करता है—‘धन्य हैं वे समस्त-मृतक/ जीते जी तो दान करते रहे/ मरणोपरांत भी पंडों की/ पीढ़ियां तार गए।’ इन कविताओं की भाषा वही है, जिसे हम और आप बोलते हैं। इसमें अधिक पेचोखम नहीं है।