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क्षतिपूर्ति

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नुकसान कभी जब होता था,

मैं सही-गलत जैसे भी हो,

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भरपाई कर लेने की

कोशिश करता था।

इस चक्कर में पर नैतिकता

के स्तर पर गिरता जाता था,

भौतिक नुकसान बचाने को

आत्मिक बल खोता जाता था।

इसलिए नहीं क्षतिपूर्ति हेतु

अब कभी शॉर्टकट अपनाता,

बचने को दुख-तकलीफों से,

विपदा को पीठ न दिखलाता।

जो भी होते हैं वार,

सामने से छाती पर सहता हूं,

लोगों को धोखा देने की

तो सोचा ही था नहीं कभी।

अब खुद को धोखा देने की भी

कोशिश कभी न करता हूं।

जो भी होता नुकसान,

उसे पूरी पीड़ा से सहता हूं,

होता यह अचरज सुखद, देख,

बाहर की सारी क्षतियों की,

मय ब्याज सदा ही भरपाई,

भीतर से होती जाती है,

नैतिक बल बढ़ते जाने से,

मन अंकुश में अब रहता है।

आसान बहुत ही,

कठिन काम भी लगते हैं।

डर के आगे जीत

मैं अक्सर सोचा करता था,

जो पटरी पर चलते पार

ट्रेन आने पर कुचले जाते हैं,

क्या दिख जाने पर ट्रेन,

समय इतना भी पास नहीं होता,

कुछ फुट भी दूर चले जायें!

पर एक बार जब खेतों में

मैं फसल बचाने खातिर अपनी

भगा रहा था सांड,

पलट कर दौड़ा मेरे पीछे वह,

तब भय से जड़ हो गया,

भाग मैं एक कदम भी नहीं सका।

रुकते ही मेरे वह भी तो रुक गया,

मगर यह सीख मुझे दे गया,

अगर मन में भय हावी हो जाये,

तो हो जाते हैं हम तुरंत असहाय,

नहीं संकेत पहुंच पाते दिमाग के,

हाथ-पैर तक अपने ही।

इसलिए कहा जाता शायद,

जो डर जाता, मर जाता है,

जीवन तो निर्भयता से ही

जीने वाला जी पाता है।

हेमधर शर्मा

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