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रंग की रंगत

लघुकथा
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अशोक भाटिया

होली का दिन है। ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता है, इस कस्बे में होली खेलने की उमंग बढ़ती जा रही है।

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श्रीनिवास घर पर बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। उसकी पत्नी आकर कहती है, ‘सुनो! बारह बज गए हैं, कुछ सब्जी ले आओ। कोई रंग-वंग डाल भी दे तो फर्क नहीं पड़ेगा, पुराने कपड़े हैं...’

श्रीनिवास उठते हुए कहते हैं, ‘नहीं, रंग-वंग कोई नहीं डालेगा मुझ पर।’

कस्बे में श्रीनिवास का रौब-दाब है। आज वे स्कूटर की बजाय साइकिल पर बाज़ार को निकले हैं। वे देखते हैं—चारों तरफ होली का रंग अपने निखार पर है। कहीं लाल, कहीं पीला रंग लगाया जा रहा है। कहीं लोग आपस में गले मिल रहे हैं, कहीं ढोलक के साथ नाच रहे हैं। किसी को छोड़ा नहीं जा रहा।

लेकिन श्रीनिवास को देखकर किसी में उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं होती। बड़े अफसर हैं, बुरा न मान जाएं। और श्रीनिवास के चेहरे पर भी एक अहम‍् है कि देखो, मुझ पर कोई रंग नहीं डाल सकता।

यही होता है। वे वैसे के वैसे ही घर लौट आते हैं। पत्नी सामान थामते हुए कहती है, ‘वाह! किसी ने रंग नहीं लगाया?’

श्रीनिवास एक खिसियानी हंसी हंसते, कमरे में आ जाते हैं। रास्ते के रंग-भरे दृश्य एक-एक कर उनकी आंखों के आगे आने लगते हैं। अचानक उन्हें लगता है कि वे कस्बे में सबसे अलग-थलग पड़ गए हैं।

वे उठते हैं और मेज पर रखे लिफाफे से गुलाल निकालकर अपने मुंह पर लगा लेते हैं।

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