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ठंडा पानी

कहानी
चित्रांकन : संदीप जोशी
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नीम के कोटर में चिड़ियों के बच्चे चीं-चीं कर रहे थे। पेड़ की ऊपरी सतह पर पपड़ी छूट आई थी, जैसे बदलते मौसम के साथ इंसानों की चमड़ी भी शुष्क और रूखी हो जाती है लगभग उसी तरह वह सोच रहे थे वर्षों तक बसेरा बनाकर रहने वाले उन पक्षियों से भी वृक्ष कहां प्रेम या सद्भाव रख पाता है जीवनभर काठ ही तो रहता है और वक्त के साथ ठूंठ भी हो जाता है। इंसान भी उससे कहां जुदा है! मन न जाने कैसा-कैसा हो गया?

डॉ. रंजना जायसवाल
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जेठ की भरी दोपहरी गर्मी के मारे सबका बुरा हाल था। पंखा भी अब चल-चलकर मानो थक गया था। सब अपने घरों में दुबके हुए थे, सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ था। इक्का-दुक्का गाड़ियां हॉर्न बजाती निकल जातीं। वैसे भी आज इतवार था, सड़कों पर चहल-पहल कुछ कम ही रहती थी। गुप्ता जी की भी आज छुट्टी थी, मौज थी उनकी पर गुप्ताइन सुबह से रसोईघर में जूझ रही थी। इतवार के दिन नाश्ते से लेकर खाना तक गुप्ता जी तय करते। सही भी था, रोज ऑफिस की दौड़-भाग में खाना तो दूर नाश्ता भी ठीक से नहीं बन पाता। किसी तरह दो-चार कौर गले से उतार कर वे ऑफिस के लिए निकल जाते। गुप्ताइन की भी कोई गलती नहीं थी बच्चों का स्कूल और गुप्ता जी के ऑफिस जाने का समय लगभग एक ही था। बच्चों का टिफिन बनाए या फिर गुप्ता जी के लिए खाना ये एक बड़ी समस्या थी। गुप्ता की पत्नी साधना को इस बात का बड़ा ही मलाल रहता था। गुप्ता जी ने इस समस्या का भी हल निकाल लिया था, इतवार का नाश्ता-खाना सब उनकी पसंद का ही बनता।

रसोईघर से मिली-जुली खुशबू आ रही थी, तभी छन की आवाज़ के साथ देशी घी, जीरे और हींग की खुशबू पूरे घर में फैल गई, शायद साधना जी ने दाल में छौंक लगाई थी। गुप्ता जी उस खुशबू में डूब गए।

‘अरे भाई जरा पंखा तो तेज करो।’

गुप्ता जी ने झुंझलाकर कहा,

‘वहीं बैठे पर ये नहीं कि उठकर पंखे की स्पीड बढ़ा ले, सिर्फ कान उमेठना भर ही तो है पर नहीं!’

गुप्ताइन पसीने से लथपथ रसोईघर से निकली। गुप्ता जी सुबह से चार बार पढ़ चुके अख़बार में सिर घुसाए बैठे थे। गुप्ताइन का पारा चढ़ गया।

‘अब क्या पंखा हाथ में दे दें, पांच पर तो है।’

गुप्ता जी ने गर्दन पर चूह-चुहाती पसीने की बूंदों को तौलिए से पोंछा।

‘कैसा मर-मर कर चल रहा है, लगता है वोल्टेज कम है?’

‘गनीमत है लाइट तो आ गई, सुबह से लाइट भी कहां थी।’

साधना जी ने झुंझलाकर कहा, मामला बिगड़ता देख गुप्ता जी ने फ्रिज की ओर रुख किया।

‘ऐसी सड़ी गर्मी पड़ रही थी कि कितना भी पानी पी लो प्यास बुझती ही नहीं।’

फ्रिज में पानी ठंडा नहीं हुआ था। गुप्ता जी का पारा गर्म हो गया।

‘क्या फायदा फ्रिज रखने का, ठंडा पानी भी नहीं है!

गुप्ता जी ने झुंझलाकर कहा...

‘बोतलें पी-पीकर सब लुढ़का देते हैं किसी से यह नहीं होता कि बोतलें भरकर लगा दे। मैं अकेली जान क्या-क्या करूं। अभी सारी बोतलें भरकर उठी हूं।’

गुप्ता जी भी जानते थे, साधना जी ने बात तो गलत नहीं कहीं थी पर उन्होंने अपने आप को समझाया।’ मैं घर में रहता ही कितना हूं जो पानी पियूं और जितना देर रहता हूं उतनी देर में मुश्किल से एक या दो बोतले भर ही पीता होऊंगा। क्या कोई मेरे हिस्से का उतना भी पानी नहीं भर सकता।’ उन्होंने फ्रिजर खोला, वहां भी बर्फ नदारद थी।

‘बर्फ कहां गई?’

उन्होंने जोर से साधना जी को आवाज़ लगाई, ऐसा नहीं था कि साधना कहीं दूर बैठी थी पर ये झुंझलाहट की आवाज थी।

‘बर्फ तो कांता ले गई, लाइट भी अभी-अभी आई है। बर्फ जमने और पानी ठंडा होने में समय तो लगेगा ही।’

गुप्ता जी की पत्नी साधना ने पल्ला झाड़ते हुए कहा, तभी दरवाजे पर घंटी बजी। गुप्ता जी ने कमरे की खिड़की से झांक कर देखा।

‘कांता की बेटी आई है।’

‘पिंकी! इस वक्त…?’

साधना जी ने आश्चर्य से कहा

‘जरूर कुछ लेने आई होगी। मुझे पूछे तो कह दीजिएगा कि सो रही हैं। इन लोगों को रोज कुछ न कुछ चाहिए ही होता है।’

साधना के चेहरे पर एक अजीब-सी झुंझलाहट थी। गुप्ता जी ने दरवाजा खोला, सामने पांच-छह साल की एक लड़की हाथ में एक भूरे रंग के छोटे से पिल्ले को पकड़े खड़ी थी। गुप्ता जी को देखकर उसने पिल्ले को जमीन पर रख दिया और बगल में दबाए प्लास्टिक के कटोरे को हाथ में पकड़ लिया।

‘अंकल जी आंटी जी को बुला दीजिए।’

उसकी आंखें तेजी से साधना को ढूंढ़ रही थी। गुप्ता जी जानते थे साधना जी बगल वाले कमरे में बैठी उनकी सारी बातें सुन रही हैं।

‘वो तो सो रही हैं, कोई काम था क्या..?’

गुप्ता जी ने सवाल उस लडकी की ओर उछाल दिया। वो चुपचाप कुछ सोचती रही। तभी उस लड़की के साथ आया कुत्ता कुनमुनाया। शायद उसे गर्मी लग रही थी, वह बुरी तरह हांफ रहा था। गर्मी की वजह से उसकी छोटी-सी ज़ुबान लंबी होकर बाहर लटक रही थी और उसकी लार जमीन पर लगातार चूं रही थी। पिंकी ने पिल्ले को जमीन पर रख दिया, वह छटपटा कर इधर-उधर भागने लगा।

‘रुक-रुक चलती हूं न…।’

उसने फिर से उसे अपनी हथेलियों में समेट लिया, धूल और गंदगी से सुनहरे हो आए उसके बाल बार-बार उसके चेहरे पर आ जा रहे थे। उसने उन्हीं हाथों से बालों को पीछे किया और गुप्ता जी की ओर देखकर कहा

‘बड़ा शैतान है, एक पल के लिए भी चैन से नहीं बैठता।’

‘क्या नाम है इसका…?’

‘सिपाही!’

अपना नाम सुन वह अपनी पूंछ हिलाने लगा। कितना अलग नाम था उसका…

‘फिर तो राजा, वजीर, चोर भी होगा?’

गुप्ता जी ने हंसते हुए कहा।

‘है न वो सब अपनी मां के पास बैठे है। यही एक जगह नहीं बैठता।’

उस लड़की ने किलक कर कहा

‘तुम्हारी तरह...?’

उसके मुरझाए चेहरे पर फूल खिल गए।

‘हमारी अम्मा भी यही कहती है, ये बिल्कुल हम पर गया है।’

उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान थी,

‘अंकल जी! ठंडा पानी दे दीजिए।’

गुप्ता जी पेशोपेश में पड़े थे, पत्नी की सिखाई बातें उन्हें कानों में गूंज रही थीं पर पानी जैसी चीज़ को क्या मना करें पर गुप्ताइन को क्या जवाब देंगे। उन्होंने एक दांव फेंका।

‘सुबह से लाइट नहीं थी, अभी-अभी आई है पानी ठंडा नहीं हुआ है। सुबह तेरी अम्मा बर्फ लेकर गई थी न… खत्म हो गया?’

‘अंकल जी वो तो है पर अम्मा छुए नहीं देती। कहती है खाना खाते बख्त ही देगी। व इसे भी हमका आपन लिए नाही चाही।’

इन लोगों का अच्छा है अपने लिए भी चाहिए और नाते-रिश्तेदार के लिए भी …साधना ठीक ही कहती है। गुप्ता जी अभी सोच ही रहे थे। तब तक पीछे से गुप्ता जी की पत्नी साधना चली आई।

‘इतनी दोपहर में डाय-डाय कहां घूम रही हो। जाओ घर जाओ धूप लग गई तो तबीयत खराब हो जाएगी।’

पिंकी की आंखों में उम्मीद के जलते दिए धप्प से बुझ गए। चेहरे पर एक निराशा पसर गई, नाउम्मीदी से कटोरा पकड़े हुए हाथ, आंखें और गर्दन एक साथ झुक गए। वह बोझिल कदमों से वापस चली गई। गुप्ता जी उसे जाता हुआ देख रहे थे। उसके एक-एक कदम उन्हे भारी पड़ रहे थे।

घर के सामने नीम का पेड़ लगा हुआ था, अपने तले सब को छांव देने वाला नीम का पेड़ तपती दोपहरी में मानो झुलसा जा रहा था। गुप्ता जी चुपचाप खिड़की से उस पेड़ को देख रहे थे, नीम के कोटर में चिड़ियों के बच्चे चीं-चीं कर रहे थे। पेड़ की ऊपरी सतह पर पपड़ी छूट आई थी, जैसे बदलते मौसम के साथ इंसानों की चमड़ी भी शुष्क और रूखी हो जाती है लगभग उसी तरह… वह सोच रहे थे, वर्षों तक बसेरा बनाकर रहने वाले उन पक्षियों से भी वृक्ष कहां प्रेम या सद्भाव रख पाता है जीवनभर काठ ही तो रहता है और वक्त के साथ ठूंठ भी हो जाता है। इंसान भी उससे कहां जुदा है! मन न जाने कैसा-कैसा हो गया? उस पेड़ के नीचे हैंडपंप लगा हुआ था। पिंकी न जाने क्या सोचकर वहीं रुक गई और …एक-दो-तीन-चार… उसने हैंडपंप के डंडे को दबाया और उसका वो प्लास्टिक का कटोरा अब पानी से भर चुका था और सिपाही चप-चप कर पानी पी रहा था। शायद अब उसे ठंडक मिल गई थी पर क्या गुप्ता जी के विचारों को भी…?

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