केवल तिवारी
बहुसंख्यक या बहुजन क्या है। शब्द कहां से आया, किस संदर्भ में कहा गया और इससे संबंधित लोगों की दशा और दिशा क्या है। इसी सबकी विस्तृत और शोध आधारित पुस्तक है ‘बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी।’ पुस्तक के संपादक हैं पत्रकार और साहित्यकार प्रमोद रंजन। कुल तीन खंडों वाली इस किताब में बहुजन से संबंधित अवधारणा, इतिहास और आलोचना पर जाने-माने लेखकों-चिंतकों के बेबाक विचार हैं।
पुस्तक में एक ओर जहां बहुजन साहित्य और दर्शन का विवरण है, वहीं दूसरी ओर संबंधित समाज और उस पर उपजे विमर्श का भी उल्लेख है। यह पुस्तक बहुजन साहित्य के विभिन्न पहलुओं की गहराई से पड़ताल करती नजर आती है। तीन खंडों में विभाजित यह पुस्तक बहुजन साहित्य का इतिहास तो बताती ही है, उसके दर्शन से भी रू-ब-रू कराती है। किताब के पहले खंड में प्रमोद रंजन, प्रेमकुमार मणि, शीलबोधी, जय कौशल और पंकज चौधरी के लेख बहुजन साहित्य की दशा-दिशा पर ठोस विचार प्रस्तुत करते प्रतीत होते हैं। इसके दूसरे खंड में कंवल भारती, प्रेमकुमार मणि, प्रमोद रंजन और ओमप्रकाश कश्यप के लेखों में संबंधित साहित्य की उत्पत्ति और उस पर विचार का वर्णन मिलता है।
किताब के तीसरे और अंतिम खंड में वीरेंद्र यादव, प्रमोद रंजन और गुलाम रब्बानी के विचारोत्तेजक लेख हैं। बहुजन समाज, साहित्य और सैद्धांतिकी पर ठोस रचनाओं वाली यह किताब आम पाठकों के अलावा शोध के विद्यार्थियों के लिए भी बेहद उपयोगी साबित हो सकती है।
पुस्तक : बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी संपादक : प्रमोद रंजन प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 176 मूल्य : रु. 250.