बचपन का घर
कविता
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हरे प्रकाश उपाध्याय
बचपन में ही छूट गया
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बचपन का घर
पिता कमाने चले गये
मैं भी चला आया पढ़ने शहर
घर ने किया होगा इंतज़ार रो-रोकर
पढ़ता गया
आगे मैं बढ़ता गया
किराये के कमरों को
घर समझता गया
पीछे छूटते गये सब रिश्ते-नाते
वे कंधे जो मुझे बिठाकर
बाग-बाज़ार ले जाते
होंगे तो हम ज़रूर उनको याद आते
पर सुना नहीं मैंने
उनको आवाज़ लगाते
काश! वे ज़रा जोर से मुझे बुलाते
मगर घर बचपन का याद आता है
और जब याद आता है तो
वह आंगन भी साथ चला आता है
जहां एक बच्चा बिन वसन
हंसता-नहाता है
कभी बाबा कभी माई के गले में
वो बच्चा लिपट जाता है
जो इस शहर में सर कहाता है
घर की जब-जब यादें आईं
न जाने क्या हुआ आंखें भर आईं
मैं सोचता रह गया
न जाने किन जंजालों में घिर गया
ख़बर है मेरे बचपन का
घर अब गिर गया!
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