पंकज मालवीय
12 सितंबर, 1981 की शाम एयरोफ्लोट से मैं मास्को के शिरिम्येत्येवा हवाई अड्डे पहुंचा। मेरी 22 साल की उम्र थी और जीवन की पहली हवाई यात्रा। दिल की घबराहट की धड़कन मेरे चेहरे पर भय और आशंका के रूप में प्रत्यक्ष देखी जा सकती थी। हवाई अड्डे पर पर्याप्त समय बिताने के बावजूद भी जिस शैक्षणिक संस्थान में मेरा दाखिला हुआ था वहां से मुझे लेने कोई नहीं आया था। कई बार टेलीफोन बूथ से फोन करने पर भी दूसरी ओर से कोई प्रत्युत्तर का संकेत न था। शायद शाम कुछ अधिक हो गई थी इसलिए संस्थान में किसी की उपस्थिति संदिग्ध थी। विदेशी धरती पर उतरते ही इस तरह के अनुभव की आशा मुझे कतई न थी। कहां, कैसे जाऊं की घबराहट से ठंड के बावजूद भी मैं पसीने-पसीने हो गया था। भाषा में पूर्ण रूप से पारंगत न होना भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में एक बाधा थी। कुल मिलाकर असमंजस की स्थिति में प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था। पर कब तक?
हवाई अड्डे के प्रतीक्षालय में अब एकाध लोग ही दिखाई दे रहे थे। मन में अजीब सी उथल-पुथल मची हुई थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। अपने जीवन में इस तरह की किंकर्तव्यविमूढ़ता का सामना पहली बार करना पड़ा था। इस संकट की घड़ी से कैसे निकला जाए इसी उधेड़ बुन के साए में मुझे एक और भारतीय वहां टहलते और प्रतीक्षा करते दिखाई दिए। मैं जल्दी-जल्दी चलकर लगभग भाग कर उनके पास गया और उनसे पूछा कि उन्हें भी क्या किसी की प्रतीक्षा है। उनके उत्तर से मुझे कुछ राहत मिली। हम दोनों एक ही नाव पर सवार थे। वह सज्जन जिनका नाम के.ए.एस. मनी था केरल से आए थे और उसी भाषा संस्थान में उन्हें भी वह कोर्स करना था, जिसमें मैं पढ़ने आया था। यह विशेष कोर्स रूसी भाषा पढ़ाने वाले विदेशी अध्यापकों के लिए था। सामान्य परिचय के बाद हम लोगों ने कुछ और देर प्रतीक्षा करने का निश्चय किया। इस बीच हमें तीन और विद्यार्थी वहां मिले जिन्हें उसी संस्थान में जाना था। अब हम पांच लोग हो गए थे। मेरा खोया आत्मविश्वास धीरे-धीरे वापस आने लगा था। काफी समय प्रतीक्षा में बीता, पर हमसे मिलने संस्थान से कोई नहीं आया। और न ही हमारा टेलीफोन किसी ने उठाया। हमारे पास अब केवल एक ही चारा था कि हम यह रात या तो हवाई अड्डे में बिताए या किसी होटल में शरण लें। इसी बीच मनी ने बताया कि उनके बड़े भाई प्रगति प्रकाशन, मास्को में काम करते हैं और यहीं मॉस्को के वाह्यांचल में रहते हैं। उन्होंने उनका पता हमें दिखाया। लाख कोशिश करने पर भी हम टेलीफोन के माध्यम से मनी के बड़े भाई से संपर्क न साध पाए। अंततोगत्वा हमने निश्चय किया कि हम सभी लोग मनी के बड़े भाई के घर आज की रात बिताएंगे। मनी के भाई अकेले अपने फ्लैट में रहते थे। इसलिए एक रात बिताने के लिए उनके फ्लैट में स्थान की कोई कमी नहीं थी। हवाई अड्डे के बाहर काफी जद्दोजहद करने के बाद हमने एक बड़ी टैक्सी की और किसी तरह अपना सामान डिक्की में रखकर हम पांचों टैक्सी में सवार होकर अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हुए।
हमारी पल-पल की घबराहट और नई जगह में असमंजस की स्थिति ने हमारे मास्को आने के उत्साह और ललक को शुरुआती अनुभव में धूमिल कर दिया था।
छह पंक्ति वाले हाईवे पर झमाझम बारिश के बीच हमारी टैक्सी सरपट भागी जा रही थी। जब भी कोई भारी वाहन विपरीत दिशा से हमारे बगल से निकलता तो उसकी रफ्तार से हमारी आंखें बंद हो जाती, क्योंकि भारत की तुलना में वहां दाहिनाहस्त चलित व्यवस्था थी। कोई 10 किलोमीटर दूर जाने के बाद गलमुच्छ टैक्सी चालक ने जो ओवरकोट, गम बूट और हैट पहने साढ़े छह फुट का हट्टा कट्टा जवान था, अचानक टैक्सी को दाहिनी ओर फुटपाथ के पास रोका और इशारे से हमें टैक्सी से बाहर निकलने को कहा। पूरी तरह से रात हो चुकी थी। बारिश भी रुक-रुक कर हो रही थी। सूनी सड़क के दोनों ओर घना जंगल दिखाई पड़ रहा था। ठंड बढ़ चुकी थी। हमें समझ नहीं आया कि उसने इस तरह टैक्सी क्यों रोकी और हमें बाहर आने को क्यों कहा। टैक्सी का दरवाजा बंद करते हुए उसने इशारे से हमें अपने पीछे-पीछे आने को कहा और वह आगे जंगल की ओर बढ़ गया। हम भी चुपचाप उसके पीछे-पीछे पगडंडी के रास्ते जंगल की ओर चल पड़े। हमारे मन में एकाएक कई भयानक विचार कौंध गए। कहीं जंगल में उसके और साथी तो नहीं हैं, वह हम सब को जंगल में पेड़ों से बांधकर हमारा सामान लेकर चंपत तो नहीं हो जाएगा। हम आने वाली विपत्ति से बिल्कुल मानसिक रूप से तैयार नहीं थे। हम जब भी हिंदी में बात करना चाहते तो वह बस हमें इशारे से अपने पीछे-पीछे आने को कहता। हम आपस में बात करने की भी हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। इशारों-इशारों में हमने तय किया कि हम इसके निर्देशों का पालन करेंगे। उसका डील-डौल इस तरह का था कि हम पांच लोग भी उसके लिए काफी न थे।
अब बारिश भी पूरी तरह रुक चुकी थी। पर जंगल के रास्ते घुप्प अंधेरा था। हमें कुछ सूझ नहीं रहा था। गनीमत थी कि उसने एक छोटी टॉर्च जला रखी थी। बस उसी की मद्धम रोशनी को पकड़कर हम आगे बढ़े जा रहे थे। अचानक हम जंगल में एक खुली जगह पहुंच गए। वहां चारों ओर से फ्लड लाइट की रोशनी में एक बड़े चबूतरे पर विशालकाय गार्डर एक-दूसरे को क्रॉस किए हुए खड़े चमक रहे थे। चबूतरे पर चारों ओर फूल बिखरे थे। हमें समझ नहीं आ रहा था कि टैक्सी चालक हमें यहां क्यों लाया। तभी उसने पीछे मुड़कर अपनी हैट उतारते हुए हमारी ओर मुखातिब होकर कहना शुरू कियाः यह जगह मास्को का उत्तर पश्चिम भाग है जिसे क्रास्नाया पल्याना कहा जाता है जो मास्को के केंद्र में स्थित क्रेमलिन से मात्र 30 किलोमीटर दूर है, और इसी जगह द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाजी जर्मनी की संयुक्त सेना व्यामाख्त पहुंची थी जहां से वह सोवियत राजधानी कीे महत्वपूर्ण इमारतों को दूरबीन से आसानी से देख सकती थी। यहीं पर नाज़ी जर्मनी का बारबरोस्सा ऑपरेशन खत्म हुआ था और सोवियत आर्मी की प्रति आक्रमण कार्यवाही शुरू हुई थी। यहां जो लड़ाई लड़ी गई थी इतिहास में उसे मास्को का युद्ध कहा गया, जो 2 अक्तूूबर 1941 से 7 जनवरी 1942 (3 महीने और 5 दिन) तक चली थी। इसी स्थान से नाज़ी जर्मनी की फौज ने पीछे हटना शुरू किया था। यदि मास्को का यह युद्ध 2 या 3 दिन और चलता तो द्वितीय विश्व युद्ध का इतिहास कुछ दूसरा ही लिखा जाता। मैं आप लोगों को यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक दिखलाना चाहता था। शायद आप लोगों को बाद में इसे देखने का अवसर न मिलता। यह स्मारक हम सभी सोवियत नागरिकों का गौरव है। हम द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका को कभी भूल नहीं सकते। हमें लेनिनग्राद की घेराबंदी आज भी याद है। द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ की भूमिका और नाज़ी जर्मनी की हार हमें देश भक्ति की प्रेरणा जीवन पर्यंत देती रहेगी। यह कहते-कहते वह काफी भावुक हो गया और उसने जोर से पैर पटककर एक ज़ोरदार सेल्यूट शहीदों के सम्मान में स्मारक की ओर देखते हुए मारा और कुछ देर तक उसी मुद्रा में खड़ा रहा। हम सभी उसके देशभक्ति के जज़्बे को देखकर मंत्रमुग्ध खड़े थे और मन ही मन उसके इस व्यवहार के प्रति नतमस्तक थे।
स्मारक देखकर हम टैक्सी से अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़े। मास्को के वाह्यांचल पहुंचने पर सड़क के दोनों ओर हमें ऊंची-ऊंची रिहायशी इमारतें दिखाई देने लगीं। बारिश फिर शुरू हो गई थी। पर जगह-जगह रुक-रुक कर टैक्सी चालक हमारा पता पूछता रहा और काफी मशक्कत करने के बाद हम अपने गंतव्य पर पहुंचे।
मनी के बड़े भाई चौदहवीं मंजिल पर रहते थे। टैक्सी चालक ने लिफ्ट में हमारा सारा सामान रखकर हमें उनके फ्लैट तक पहुंचाया। जब उसे भाड़ा देने की बात आई तो उसने साफ मना कर दिया, यह कहते हुए कि आप लोग इतनी दूर भारत से मेरी मातृभाषा ‘रूसी’ सीखने आए हैं, मैं आप लोगों से भाड़ा कैसे ले सकता हूं। मुझे खुशी है कि मैं आप लोगों को सुरक्षित आपके गंतव्य तक पहुंचा पाया। और ‘दस्विदानिया’ यानी अलविदा कह कर वह जल्दी-जल्दी लिफ्ट से नीचे उतर कर तेज़ी से टैक्सी चलाते हुए रात के अंधेरे में अदृश्य हो गया।
कहानीकार पंजाब विश्वविद्यालय के रूसी भाषा विभाग में विभागाध्यक्ष रहे हैं।