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कप में उफान

लघुकथाएं
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अशोक भाटिया

आज फिर ऐसा ही हुआ। वह चाय बनाने रसोई में गया तो उसे फिर वही बात याद आ गई। उसे फिर चुभन हुई कि उसने ऐसा क्यों किया! आप भी उसकी कहानी, उसी की जुबानी सुनिए—

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मेरे घर की सीवरेज-पाइप कुछ दिनों से रुकी हुई थी। आप जानते हैं कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति घर में सहज रूप में नहीं रह पाता। यह तो आप भी मानेंगे के यदि जमादार न होते, तो हम सचमुच नरक में रह रहे होते। खैर, दो जमादार जब सीवरेज खोलने के लिए आ गए, तो मेरी सांस में सांस आई। वे दोनों पहले भी कई बार इसी काम के लिए आ चुके हैं। वे ढक्कन हटाकर, मेन होल में बांस लगाने लगे। एक थक जाता, तो दूसरा बांस लगाता... कितना मुश्किल काम है...! मैं कुछ देर उनके पास खड़ा रहा, फिर दुर्गन्ध के मारे भीतर चला आया और सोचने लगा कि इनके साथ समाज का व्यवहार आज भी कहीं-कहीं ही समानता का होता है, नहीं तो अधिकतर अमानवीय ही होता है। इतिहास तो जातिवादी व्यवस्था का गवाह है ही, आज भी हम इनके प्रति नफरत दिखाकर ही गर्व अनुभव करते हैं।

मेरे मन में ऐसा बहुत-कुछ उमड़ रहा था कि बाहर से आवाज़ आई, ‘बाऊजी, आकर देख लो।’ मैं उत्साह से बाहर गया... देखा, पाइप साफ हो चुकी थी।

‘बोलो, पानी या फिर चाय...?’ मैंने पूछा।

‘पहले साबुन से हाथ धुला दो!’ वे बोले। शायद वे मेरी उदारता को जानते हैं। मैं यह सोचकर खुश होने लगा... हाथ धुलाते समय मैंने उन्हें साबुन देते हुए जान-बूझकर अपने हाथों से उनके हाथों का स्पर्श किया, ताकि उन पर मेरी उदारता का सिक्का जमने में कोई कसर न रहे। मैंने सोचा... इनको पैसे तो पूरे दूंगा ही, पर मुझे एक अवसर मिल गया, बोला, ‘एक बार साबुन लगाने से हाथों की बदबू नहीं जाती। रसोई की नाली रुकी थी, तो मैंने हाथों से गन्द निकाला था... उसके बाद तीन बार हाथ धोए, तब जाकर बदबू गई थी...’

‘बाऊजी, हमारा तो रोज का यही काम है, थोड़ी चाय पिला दो...!’

मैं यही सुनना चाहता था... यह तो मामूली बात है... इनके प्रति अपने पूर्वजों द्वारा किए गए अन्याय के प्रायश्चित के रूप में हमें बहुत-कुछ करना चाहिए, लेकिन क्या? यह मैं कभी नहीं सोच पाया...

मैं रसोई में जाकर उत्साह से चाय बनाने में जुट गया और भगोने में चाय का सामान डालकर, मैंने तीन कप निकाले। एक बड़ा और दो छोटे। फिर सोचा.. यह भेदभाव ठीक नहीं... इन्हें चाय की जरूरत मुझसे ज्यादा है...। मैंने तीनों एक से कप उठाए। ऐसे और भी कई कप रखे थे, लेकिन मैंने एक कप साबुत लिया और दो ऐसे लिए जिनमें क्रैक पड़े हुए थे।

उधर चाय में उफान आया, तो मैंने फौरन आंच धीमी कर दी...।

निक्कू ट्रैप हो गई

छोटी चार साल की है। स्कूल जाती है। सबसे घुल-मिल जाती है।

तीनों बच्चे ‘निक्कू ट्रैप हो गई’ का खेल खेल रहे थे। दो लड़कर अपने घर चले गए तो छोटी ने मां को बताया कि निक्कू ट्रैप हो गई है। मां बोली ‘कोई बात नहीं, मिल जाएगी।’ मां ने ध्यान बंटाना चाहा कि छोटी ने पूछा –मम्मी, अगर मैं ट्रैप हो गई तो?’

मां ऐसा भयावह दृश्य सोचकर कांप उठी। फिर उसे समझाया कि स्कूल से आते वक्त पहले देखो कि घर का कोई मेम्बर आपको लेने आया है तो ही वैन से नीचे उतरो। नहीं तो घर पर फोन करने को बोलना, वो बुला लेंगे। कोई न आया तो वापस स्कूल ले जाएंगे और रूम में बिठा देंगे। परेशान मां छोटी के चेहरे पर तनाव को साफ़ देख रही थी। उसे फिर से समझाकर रोज़ की तरह घंटे-भर के लिए सुला दिया। लेकिन थोड़ी देर में ही छोटी झटके से उठी और कहा, ‘मम्मी, मुझे तो स्कूल का भी रास्ता नहीं पता।’

सुनकर मां के होश फाख्ता हो गए। ओह! यह अभी वहीं अटकी है! पहली बार वह छोटी के चेहरे पर इतनी परेशानी देख रही थी। क्या कहे और क्या करे, वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। जब से उनकी गली से दो बच्चे चोरी हुए हैं, उसका चैन और नींद उड़ चुकी है। अपनी बच्ची को कैसे बचाए रखें इन राक्षसों से? यह तो स्कूल से आकर भी अपनी बालकनी में खड़ी हो जाती है। कितना खतरा है-- इसे इसके दादा-दादी भी नहीं जानते। बाहर लोहे का जाल लगवाने को कहा तो मना कर दिया। कहा, कुछ नहीं होता। कैसे नहीं होता! गली में दो वाकये तो हो चुके।

मां को डर के मारे कुछ नहीं सूझ रहा। बच्ची की पहचान कैसे बनी रहे, अगर कुछ ऐसा-वैसा हो... नहीं-नहीं... उसने जोर से सिर झटक दिया। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। तभी छोटी स्कूल से लौटी तो जान में जान आई। जब तक ये घर न पहुंच जाए, किसे बताऊं कि एक-एक पल कितनी परेशानी में बीतता है। मां ने छोटी को उठाकर छाती से चिपका लिया... नन्ही जान... उसके सपने... और ये सब... गली से उठाए गए दोनों बच्चे आज तक नहीं मिले... वह बच्ची के कपड़े बदलने लगी। अचानक उसे ध्यान आया... गले का आइडेंटिटी कार्ड तो बाहर की चीज़ है। पहचान कैसे होगी कुछ हो गया तो... हां, यह पेंटी... उफ़... वह बदहवास-सी स्टेशनरी की दुकान पर पहुंची, ‘कोई ऐसा मार्कर है, जिससे कपड़े पर लिखा मिटता नहीं?’

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