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कुंद चेतना पर चोट करती कविता

पुस्तक समीक्षा

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शील कौशिक

पंजाब के चर्चित कवि एवं आलोचक-चिंतक राकेश प्रेम की ‘कविता में जीते हुए’ सद्यः प्रकाशित कृति है। वर्तमान में परत-दर-परत क्षरण होती संवेदनाएं, टूटते रिश्ते, बढ़ती अमानवीयता के फलस्वरूप कवि की पीड़ा का बयान जरूरी पाठ की तरह प्रासंगिक है। अपनी संवेदनात्मक चेतना के साथ वे हमारे सम्मुख ऐसे व्यापक सरोकार वाले कवि के रूप में हैं, जिसमें समाज के हर वर्ग की अनुगूंज शामिल है। सृजन के क्षणों में कवि की गहन, अर्थपूर्ण दृष्टि सामान्य समझे जाने वाले पलों पर टिककर संवेदना खोज लेती है।

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‘कविता का होना’ कवि के लिए ‘संवेग है/ ताप है/ जीवन सरिता का प्रवाह है।’

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‘मौन में प्रार्थना’ कविता में कवि कहता है ‘अब मैं जुलाहे-सा बुनूंगा/ कविता का सूत/ शब्द के मौन से/ अर्थ को अभिव्यक्ति दूंगा।’

बीज से पेड़ होने में सबका अंशदान है इसलिए कृतज्ञ होने का संदेश और पेड़ होने के मायने क्या होते हैं, मनुज को इस दर्शन का आभास कराती कविता की पंक्तियां यहां उद्धृत हैं ‘और यह कि पेड़ होना/ तनना नहीं है/ पेड़ होना है झुकना/ जमीन की ओर!’

‘फिर उगेगा सूर्य’ सकारात्मक भावोद्गार देखिए ‘फिर उगेगा सूर्य/ संभावना का/ छंटेंगी बदलियां/ इतिहास के पन्नों में/ लिखा जाएगा/ जयगान/मानवता का।’

‘नहीं है मेरे पास/ उपमा, रूपक अलंकार/ सादे-से शब्द हैं/ सीधी-सी भाषा है/ भाव है कुछ अधपके से/ बिंब और प्रतिमान की कहूं क्या/ छू पाएं यदि शब्द मेरे/ मन को आपके/ समझूंगा- कह दी कविता’ (कविता में जीना)।

कवि की घुटन महसूस किया जाता है जा सकता है ‘बोलना मना है’ कविता में ‘भीड़ का साम्राज्य/ घना है/ बोलना मना है... वे जानते हैं सब कुछ/ कि होना है उन्हें ही मुखर/ और आपको/ भींच कर अपनी मुट्ठियां/ केवल चुप रहना है/ मौन की भट्टी में सुलगते रहना है।’

पुस्तक : कविता में जीते हुए कवि : राकेश प्रेम प्रकाशक : कलमकार पब्लिशर्स प्रा. लि. नयी दिल्ली पृष्ठ : 112 मूल्य : रु. 250.

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