Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

बेंच

कहानी
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
featured-img featured-img
चित्रांकन संदीप जोशी
Advertisement

बिटिया ने एक आइडिया दिया— ‘पापा अपने आंगन में ही एक बेंच बनवा लीजिए। अपनी बेंच का सुख अपने ही हाथों में। बैठिए, लेटिए, झपकी लीजिए या नींद निकालिए।’ सचमुच, जमाने भर की खुशी उसके चेहरे पर थी। तुरंत एक बनी-बनाई बेंच आर्डर कर दी। उस पर बैठते ही चेहरे की मुस्कान ने कहा–‘इतनी छोटी-सी बात! भला पहले दिमाग में क्यों नहीं आई!’

आज उसकी पोती तूलि का चयन वाॅलीबॉल टीम में हुआ। ऐसा लगा जैसे परिवार की परंपरा आगे बढ़ रही हो। बहुत उमंग से वह पिछले दो मैच देखने गया लेकिन हर बार पोती को बेंच पर बैठे ही पाया। कभी उसे चीयर करते देखा तो कभी पूरी टीम के साथ हडल में शामिल होते हुए। बच्ची को खेलते हुए देखने के लिए तरस गया। खुशी इस बात की थी कि तूलि संतुलित थी। घर आकर भी शिकायत नहीं की। इस बात का डर भी था कि चाहे कुछ न कहे, पर भीतर ही भीतर बहुत कुछ कचोटता होगा।

हालांकि तूलि को बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा। जल्द ही वह खेलने लगी और टीम की एक खास खिलाड़ी के रूप में पहचानी जाने लगी। उसने राहत की सांस ली। खेल कोई भी हो बेंच पर खिलाड़ी होते ही हैं- अपने टर्न की बेसब्री से प्रतीक्षा करते। टीवी पर क्रिकेट मैच देखते हुए उसकी नजरें अब मैदान से ज्यादा बेंच पर बैठे खिलाड़ियों पर जातीं। जो कभी पानी लेकर मैदान में जाते, तो कभी बल्ला बदलने के लिए। साथ ही कप्तान का संदेश भी दे आते।

Advertisement

उम्रभर उसने भी वही किया। जीवन का खेल हो या मैदान का। यही बेंच तो उसके जीवन का अभिन्न अंग रही। एक पति के रूप में पत्नी से सारी प्यार भरी बातें वहीं बैठकर कीं। सालों का साथ जब छूट गया तब भी ऐसा लगता मानो कई बार पहलू में आ बैठी हो। बातें शुरू हो जातीं। जुगाली। अनवरत।

और एक पिता, जो काम से फुर्सत मिलते ही ब्रेक लेने के लिए बगीचे की बेंच पर जा बैठता था। सोचता, बच्चों का भविष्य, उनका घर बसाना और बच्चों के बच्चों को बड़ा करना। एक सीरीज़ की तरह। एक घटना से लगी हुई दूसरी घटना। कभी आज में, कभी आने वाले कल में, तो कभी बीते हुए कल में।

साथ ही, एक खिलाड़ी भी, जिसने बेंच पर बैठे हुए जीवन का फलसफा समझा। ऐसे, जैसे जीवन की हर बेंच, उसकी हर यात्रा की दिशा तय करती रही हो।

रिटायर होने के बाद सब कुछ छूट गया सिवाय बेंच के। सुबह की सैर हो या शाम की, हर बार सुस्ताने के लिए बेंच पर बैठता ही था। चलते रहना, थोड़ी देर विराम देना और आगे बढ़ना। यूं भी अब ये छोटी-छोटी, घर से बाहर की निकलने की कोशिशें भी किसी यात्रा से कम नहीं लगतीं। क्योंकि न शरीर में अब पहले जैसी ताकत है, न मन में वो ललक बची है। लेकिन फिर भी, हर दिन कुछ नया होता है। हर दिन की यह छोटी-सी यात्रा, कोई नया अनुभव, कोई नया अहसास ले आती। जैसे अभी की ही बात हो। बेंच पर बैठते ही स्मृतियां एक रील की तरह घूमने लगतीं। जगहें, चेहरे, घटनाएं... सब सामने आ जाते। बीते हुए कल की राख में दबी कई चिनगारियां अचानक ही फूट पड़तीं, मौका मिलते ही आग लगाने को तैयार।

विडम्बना है कि कई चीजें सामने होकर भी दिखाई नहीं देतीं और जो सामने नहीं हैं, वे ही उछलती-कूदती हर वक्त आंखों के सामने मंडराती रहती हैं। शायद इसी को बुढ़ापा कहते हैं जब शरीर और मन का रिश्ता उलझनों से भर जाता है। जैसे रेशम के महीन धागे आपस में गुत्थमगुत्था हो गए हों। गांठें सुलझने के बजाय और उलझती जाती हैं और उन्हीं में फंसे तन-मन उस बेचैनी को और भी बढ़ाते जाते हैं।

आज भी वे सारी बातें सामने आ रही थीं जिन्हें वह ताउम्र भूलना चाहता रहा। वह पीछा छुड़ाता रहा, लेकिन वे उम्र भर उसका पीछा करती रहीं। जीवन का मुश्किल दौर स्मृति से जाता नहीं, अमिट दाग की तरह चिपका रहता है। कितने ही साल बीत गए, मगर वह बात जैसे अभी-अभी की हो, जब उसका सिलेक्शन टीम में हुआ था। खुशी का ठिकाना न रहा। घर-परिवार-गांव सभी फूले नहीं समा रहे थे। ऐसा बेटा जन्मा जिसने नाम रोशन किया। देश की टीम के लिए खेलना, सचमुच, बहुत बड़ी बात थी। यूनिफार्म पहनकर फोटो खिंचवाई गई। मैच शुरू हुआ, एक दो तीन। गिनती आगे बढ़ती रही। उसे खेलने का मौका ही नहीं मिला। बेंच पर बैठा-बैठा वह हर खिलाड़ी की कमजोरी और खासियत पहचानने लगा। वह उन सबके बारे में सोचता और खुश होता रहता। सबको चीयर करते हुए कभी-कभी अपने बारे में सोचकर उदास होना स्वाभाविक था।

मैदान में पानी पहुंचाना, कप्तान का संदेश देना और गुडलक बोलकर वापस आ जाना। फिर वह दिन आया जब तीन खिलाड़ी एक साथ क्रैम्प से परेशान थे। दूसरों की परेशानी उसके लिए अवसर बन गई। उसका नंबर आया। और वह दिन आया जिसका उसे बरसों से इंतजार था।

नेट पर वह लगातार प्रैक्टिस करता था। उसके हाथ सधे हुए थे। वह दूसरों से ज्यादा मेहनत करता और सेहत भी उसका साथ दे रही थी। हर खिलाड़ी की कमजोरी उसके दिमाग में बैठ चुकी थी। आखिर सब्र का मीठा फल मिला।

अब तक वह दूसरों के लिए चीयर करता था, लेकिन अब मैदान में उसके लिए आवाजें उठने लगी थीं। पर जिस आनंद को वह बरसों से जीना चाहता था, उसे ठीक से महसूस भी नहीं कर पाया था कि एक चोट ने उसे बेंच क्या, घर पर ही बैठा दिया।

हालांकि बेंच ने उसे एक उभरता खिलाड़ी ही नहीं, बल्कि एक संघर्षरत इंसान बना दिया था। बेंच पर बैठना और मैदान में जाकर विरोधी टीम का सामना करना, दो बिल्कुल अलग-अलग अनुभव थे। और उसी संघर्ष ने उसके लिए सारे दरवाजे खोल दिए। उन्हीं पलों का धैर्य उसकी सबसे बड़ी जमा पूंजी बन गया। तब से लेकर आज तक उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा था। बेंच उसकी ताकत बनी रही।

बेंच पर ही बैठा था जब पहली बार शगुन से मुलाकात हुई थी। जब शगुन ने उसे पिता बनने की खबर दी थी। और जब शगुन के छोड़कर चले जाने की खबर मिली थी। बेंच के आसपास ही जिंदगी के कई अध्याय लिखे जा चुके थे। और, न जाने कितने अभी भी लिखे जाने शेष थे। काम से रिटायर हुआ था, जिंदगी से नहीं।

वहकई अलग-अलग जगह जाता रहा पर बेंच हर जगह मिल जाती थी- मानो वह उसे ही पुकारती हो। जैसे कहती हो—‘तुम्हारे स्वागत के लिए मैं यहां भी हूं।’

रिटायर होने से पहले बेंच उसकी साथी थी और बाद में सहारा बन गई। बेंच उसके लिए महज एक बैठने की जगह नहीं जो चार पायों पर टिकी हो। उसकी जिंदगी में इसके मायने बहुत अलग थे। एक पाए ने करिअर दिया, दूसरे ने परिवार। तीसरे ने उम्मीद पर जीना सिखाया और चौथे ने जुनून को जिंदा रखा। यूं संपूर्ण जिंदगी, खुशनुमा या गमगीन, हर दौर में बेंच ने साथ निभाया।

कभी अकेला-अकेला बैठा करता था। फिर, शगुन ने साथ दिया। एक से भले दो हुए। फिर बच्चों ने मिलकर चार कर दिए। दोनों बच्चे बड़े हुए। पंख मिले तो उड़ चले अपनी दुनिया की ओर। फिर से पति-पत्नी दो रह गए। फिर एक दिन वो भी चली गई। शगुन ने साथ छोड़ दिया तो फिर से वह अकेला...। घूम-फिर कर वहीं, जहां से चला था। जैसे वही पुराना, घर का बुद्धू लौट के वापस घर को आया।

समय के प्रवाह में, पुराना टूटता जा रहा था, और नया बनता जा रहा था। कई जगह बेंच गायब हो गई थी। ज्यादा दूर जा नहीं पाता था। बच्चों से अपने अकेलेपन के साथी के छिन जाने की शिकायत की। बिटिया ने एक आइडिया दिया— ‘पापा अपने आंगन में ही एक बेंच बनवा लीजिए। अपनी बेंच का सुख अपने ही हाथों में। बैठिए, लेटिए, झपकी लीजिए या नींद निकालिए।’

सचमुच, जमाने भर की खुशी उसके चेहरे पर थी। तुरंत एक बनी-बनाई बेंच आर्डर कर दी। उस पर बैठते ही चेहरे की मुस्कान ने कहा–‘इतनी छोटी-सी बात! भला पहले दिमाग में क्यों नहीं आई!’

हालांकि सच तो यह था कि धीरे-धीरे, दिन बीतते-बीतते, वही एकमात्र यात्रा रह गई थी- कमरे से आंगन में, बेंच तक की। फिर भी यात्रा तो थी ही। बेंच भले ही घर के भीतर थी, पर वहीं बैठकर खयालों में रोज मीलों दूर घूम आता था। कई बरसों की जुगाली करते हुए। और फिर, अपनी बेंच पर बैठने के सुख का कहना ही क्या! उसमें सब कुछ था, प्रेम-प्यार, आदर-सम्मान, संवेदना-हिम्मत, मोह-माया, सब कुछ।

बस जो नहीं था, वो था- आज को स्वीकार करने का साहस। निठल्ले पलों की संख्याएं, असंख्य होकर कचोटती थीं, बुरी तरह। कभी घिस-घिस कर रेत बनते पत्थर, तो कभी सालों बाद पत्थर बनती रेत! इतिहास के पन्नों की यही बदलती परतें थीं।

आखिरकार, अपनी बेंच पर बैठे-बैठे वह एक दिन उस लंबी यात्रा पर निकल गया, जहां से लौटना नहीं था। बेंच वहीं रह गई, किसी अगले मुसाफिर के इंतज़ार में। अदृश्य, मगर सजीव आंखों ने बंद होने से पहले, एक भरपूर नजर बेंच पर डाली। धुंधली-सी तस्वीर उभरी-देखा, बेंच पर तूलि बैठी थी।

Advertisement
×