हर्षदेव
एक ऐसे समय जब भारत अपने अस्तित्व के सबसे गम्भीर संकट और चुनौतियों से घिरा हुआ है, भारत माता की पहचान का सवाल और ज्यादा अहम हो उठा है। जब यह सवाल किया जाता है तो उसके साथ कुछ पूरक प्रश्न भी जुड़ जाते हैं।
पहली बार जवाहरलाल नेहरू ने भारत माता को समझने-परिभाषित करने की कोशिश की थी। उन्होंने पूछा था— यह भारत माता कौन हैं? प्रश्न उन्होंने भारत माता की जयकार करने वालों से पूछा था। इससे पहले अपनी आत्मकथा में वह इसका उत्तर भी दे चुके थे। उन्होंने इस पर विचार करते हुए लिखा—‘भारत देश माता का रूप ले लेता है, एक सुन्दर स्त्री, बहुत ही वृद्ध होते हुए भी देखने में युवती, आंखों में दुःख और शून्यता भरी हुई, विदेशी और बाहरी लोगों द्वारा अपमानित और उत्पीड़ित… लेकिन हिंदुस्तान तो उन किसानों और मजदूरों का देश है, जिनका चेहरा खूबसूरत नहीं है क्योंकि गरीबी खूबसूरत नहीं होती।’
अपने प्रश्न का अनुगमन करते हुए नेहरू फिर पूछते हैं—मतलब क्या है भारत माता से प्रेम करने का? एक बेहद तार्किक जवाब भी वह स्वयं देते हैं ‘क्या वह सुन्दर स्त्री, जिसका हमने काल्पनिक चित्र खड़ा किया है, नंगे बदन और झुकी हुई कमर वाले, खेतों और कारखानों में काम करने वाले किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करती है? या वह उन थोड़े-से लोगों के समूह का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने खुद युगों से जनता को कुचला और चूसा है, उस पर कठोर से कठोर रिवाज लाद दिए हैं और उनमें से बहुतों को अछूत तक करार दे दिया है।’ (भारत माता की कल्पना की यह व्याख्या नेहरू ने 1936 में की थी।)
निस्संदेह ‘करोड़ों हिन्दुस्तानी ही हैं भारत माता, उन्हीं की जय है भारत माता की जय’- नेहरू ही नहीं, स्वाधीनता आन्दोलन के सभी विचारशील और उदार नेताओं का नज़रिया यही था। इस कथन का उद्देश्य यह समझाने की कोशिश है कि भारत माता का एक विशेष अर्थ और निहितार्थ है : भारत ‘राष्ट्र’ सभी भारतवासियों से मिलकर बना है, भले ही उनकी जाति, धर्म और लिंग कुछ भी हो।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘विश्व परिचय’ पुस्तक की प्रस्तावना में बड़ी विचारणीय बात कही है। वह कहते हैं ‘प्रकाशलोक के अन्तराल में जो अप्रकाशलोक है, उसी गहन में प्रवेश करके मनुष्य ने विश्व व्यापार के मूल रहस्य को निरंतर उद्घाटित किया है।’ अपनी इस चेतना बुद्धि को गुरुदेव ने बहुत ही तर्कसंगत विस्तार देते हुए लिखा है ‘मनुष्य ने सहज शक्ति की सीमा पार करने की साधना से दूर को निकट बनाया है, अदृश्य को प्रत्यक्ष किया है और दुर्बोध को भाषा दी है।’ नेहरू भारत माता के ऐसे ही अदृश्य को प्रत्यक्ष करते हैं।
भारत देश के निर्माण की साम्यता गुरुदेव के इस कथन से कितना सटीक मेल खाती है, यह संयोग देखने लायक है ‘विश्व-जगत् ने अपने अति छोटे पदार्थों को छिपा रखा है और अत्यन्त बड़े पदार्थों को छोटा बनाकर हमारे सामने उपस्थित किया है अथवा नेपथ्य में रखा है। उसने अपने चेहरे को इस प्रकार सजाकर हमारे सामने रखा है कि मनुष्य उसे अपनी सहज बुद्धि के फ्रेम में बैठा सके। किन्तु मनुष्य और चाहे जो कुछ भी हो, सहज मनुष्य नहीं है। वही एक ऐसा जीव है जिसने अपने सहज बोध को ही संदेह के साथ देखा है, उसका प्रतिवाद किया है और हार मानने पर ही प्रसन्न हुआ है।’
विचारक और विद्वान लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल की नई पुस्तक ‘कौन हैं भारत माता?’ नेहरू के वैचारिक और दार्शनिक मूल्यांकन की एक समग्र साधन-सामग्री बन पड़ी है। पत्रकार शिरोमणि राजेन्द्र माथुर ने एक जगह लिखा है ‘नेहरू के ईमानदार मूल्यांकन और उनकी स्वछन्द सराहना में राजीव गांधी का (उनके वंशजों का!) सत्ता में आना एक बाधा है। हालांकि इसमें उनका कोई दोष नहीं है।’ राजेन्द्र माथुर की यह टिप्पणी इसलिए तर्कसंगत है क्योंकि जैसे ही नेहरू की बात होती है, उनके साथ वंशजों का कृतित्व जुड़ने लगता है। इसके बावजूद क्या यह देश किसी विकृत स्थापना के वशीभूत नेहरू के प्रति कृतज्ञता से विमुख हो सकता है?
जरूरी तौर पर यह पूछा जाना चाहिए कि गांधी या नेहरू के मूल्यांकन पर सवाल क्यों उठाए जाने लगते हैं? यदि विदेशी विचारक ईसा मसीह या शेक्सपियर का आलोचनात्मक मूल्यांकन कर सकते हैं तो हम गांधी या जवाहरलाल नेहरू का मूल्यांकन क्यों नहीं कर सकते!
नेहरू भारत की विविधता और प्राचीन संस्कृति को सशक्त बनाने का प्रयास करने के लिए निरंतर जूझते रहे। उन्होंने देश को गंगा, हिमालय, भारत भूमि की मिट्टी के देखा। इन प्रतीकों के प्रति उनके विश्वास का ही यह प्रमाण है कि नेहरू ने अपने पार्थिव अवशेषों को इन्हीं प्रतीकों में एकाकार कर देने की अंतिम इच्छा प्रकट की।
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘कौन हैं भारत माता’ की जो प्रस्तावना लिखी है, वह नेहरू के व्यक्तित्व की सूक्ष्म और विस्तृत समीक्षा के साथ ही देश की भौतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को भी रासायनिक सूत्र की तरह खोलकर रख देती है। प्रस्तावना काफी लम्बी 44 पन्नों में जरूर है लेकिन इसमें नेहरू और भारत से सम्बंधित शायद ही कोई पहलू विचार से छूट गया हो। परम्परा, लोकदृष्टि, भारतीय दर्शन और धार्मिक विश्वास, सामाजिक-आर्थिक तौर पर अनगिनत खण्डों में बंटे हुए देश की अनेकता में एकता के सूत्र की खोज, राजकाज के प्रति घोर उदासीनता में अच्छे भविष्य के सपने बुनता अपने ही हाल पर जीवन जीता (नंगे बदन और झुकी हुई कमर वाले) हिन्दुस्तानी को स्कूली मास्टर की तरह समाज और सियासत का पाठ पढ़ाते नेहरू के व्यक्तित्व के सूक्ष्म और स्थूल हर पहलू की पड़ताल की गई है। इस उद्यम से हम यह समझ पाने की दिशा में अपनी दृष्टि ले जाने के लिए प्रेरित होते हैं कि नेहरू ने कैसे ‘भारतीय होने के मायने’ समझने का प्रयास किया। नेहरू ने अपने लेखों, पत्रों, पुस्तकों और वक्तृताओं में भारत से जुड़े प्रश्नों, संदेहों, जिज्ञासाओं और विचारों का अर्थ तलाश करने की कोशिश की है।
प्रो. अग्रवाल ने स्वयं नेहरू की लिखी और उनके बारे में विभिन्न लोगों द्वारा लिखित चुनिंदा सामग्री को अत्यंत कौशल के साथ सम्पादित और संकलित करके एक पठनीय और संग्रहणीय ग्रन्थ की रचना की है। नेहरू के बारे में पढ़ते हुए उनके दो गुण बार-बार उभरते हैं। ये हैं—संयम और करुणा। एक स्थान पर नेहरू ने कितना तर्कसंगत लिखा है ‘कितनी विचित्र बात है कि अपनी दृष्टि की संकीर्णता, आदतों और रिवाजों की कमजोरियों को हम यह कहकर नजरअंदाज कर देना चाहते हैं कि हमारे पूर्वज बड़े लोग थे और उनके बड़े-बड़े विचार हमें विरासत में मिले हैं। लेकिन पूर्वजों से मिले हुए ज्ञान एवं हमारे आचरण में भारी विरोध है और जब तक हम इस विरोध की स्थिति को दूर नहीं करते, हमारा व्यक्तित्व फटा का फटा रह जाएगा।’
नेहरू की गलत सोच : नेहरू इस देश के इतिहास के नायक हैं और रहेंगे। उनके इस महत्व से कोई कितना भी इनकार करे, स्थिति को बदल नहीं सकता। इसके बावजूद आज देश को जिस ‘राजनीतिक हिन्दुत्व’ की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, वह नेहरू की अति लोकतान्त्रिक दृष्टि और वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर होने का परिणाम है। जीवन के अपने तमाम आदर्शों, इंसानियत की तलाश, प्रगति के रास्तों का मंथन और नवनिर्माण की अदम्य चाहत के बावजूद यह बात कहना जरूरी है और वह इतनी ही है कि नेहरू ने राजनीतिक प्रक्रिया के स्वाभाविक विकास पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया जबकि वर्तमान बताता है कि वह विश्वास गलत धारणा पर आधारित था। महात्मा गांधी की हत्या के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमेशा के लिए प्रतिबन्ध लगाना चाहते थे। लेकिन नेहरू इसके खिलाफ थे। यहां याद रखना उचित होगा कि नेहरू ने ही गणतंत्र दिवस की परेड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों को शामिल होने का अवसर देने की पहल की थी।
पुस्तक : कौन हैं भारत माता? सम्पादन एवं भूमिका : पुरुषोत्तम अग्रवाल अनुवाद : पूजा श्रीवास्तव प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 512 मूल्य : रु. 499.