एक सुंदर स्त्री
रास्ता दिखाती है
ऊबड़खाबड़ दिनों को
सहज पार करने का।
वह चलती है साथ
एक कदम की दूरी को
मीलों में नापते
पैरों को शक्ति देती।
वह बन जाती
कड़ी धूप में
शीतल छांव।
ले जाती खूबसूरत स्मृतियों के
छूटे हुए पहाड़, जंगल, झरने गांव।
पता नहीं क्यों
पुरुष उसकी छांव में
उसके बारे में
उसके लिए
देखता है अधूरे वर्जित सपने?
कौन सा
तुम्हारे लिए
कौन-सा प्रेम चुनूं मैं?
सब अधूरे।
चलो वहां बैठकर सोचें
जहां कोई न हो
न कोई रास्ता उस जगह का
न कोई नक्शा,
न कोई भूगोल
न कोई नाम,
न कोई पता।
जहां मिल जाएं
हर एक मौसम की
हमारी खोई हुई पुरानी बातें।
अचानक दिख जाए
प्रतिबिंब रहित गेंद जैसी
गुम हो गई व्यतीत की पहचान।
यात्राएं अधूरी
धुकधुकी और सांसें।
बिना खिड़कियों
बिना दरवाजों
बिना कोलाहल के
कोई है ऐसी जगह?
पता हो
तो बताना
मुझे भी।
– हरि मोहन