गहन अंधकार सब ओर छाया,
यह चालाकियों का दौर।
बाबू क्या करोगे?
ठगी का बाजार मोहक,
लोभ के चेहरे लगाए भेड़िए,
छल-छिपाए घूमते सब ओर।
बाबू क्या करोगे?
नियंता दूर बैठा देखता लाचार,
बढ़ रहा अनैतिकता का खुला बाजार।
हमारा रक्त उनके लिए शीतल पेय,
मीठी छुरी से काटते छुपे रुस्तम,
सजाते थाल कंचन के।
प्रस्तुत सामने उनके,
हम मंत्र कीलित मेमने,
सिर झुकाए।
बाबू क्या करोगे?
चलो, एक बार फिर करें कोशिश,
अनन्त हैं चालाकियां इनकी,
नोच डालें शराफत के इनके मुखौटे।
और बाबू तुम क्या करोगे?
जय हो
जय हो! जय हो!! जय हो!
गाते-गाते बदल गए स्वर।
नाचते-नाचते ढेर हो गईं तस्वीरें।
खिलते-खिलते बिखर रहे रंग।
जय हो! जय हो!! जय हो!!!
वे आए हैं जीतकर दस दिशाओं से।
भीड़ छूट गई है पीछे बस्तियों में। वल्गाएं खोलकर बांध दिए हैं
सभी ने अपने अपने घोड़े।
पसीने से लथपथ घोड़े पस्त खड़े,
एक-दूसरे को देखते
थकी हुई आंखों से।
जीते जो व्यस्त हो गए हैं
गिनतियों के खेल में।
शकुनियों के पास, आस लगाए
तल्लीन वे षड्यंत्र में।
पांसे-दांव-चौपड़ सब ओर हैं।
विश्वास के संकट में फंसे वे सब।
लोकतंत्र, लोकतंत्र! चीखती
आवाजें फिर गाएंगी।
सिंहासन पर आसीन,
हो कोई भी, क्या हुआ?
शेष जन को तो यही गाना—
जय हो! जय हो!! जय हो!!!

