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गुहार

लघुकथा
चित्रांकन : संदीप जोशी
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अशोक जैन

मेरे घर के सामने एक परिवार रहता है। परिवार क्या है—सब्जी मंडी में सुबह की भीड़-सा वातावरण रहता है—दोपहर को। क़रीब आठ सदस्यों का यह परिवार निम्नस्तर का जीवनयापन करता है। परिवार का मुखिया एक क्लर्क है, गुजारा बमुश्किल ही चल पाता है। घर पर बड़ी लड़की एक मोंटेसरी स्कूल में पढ़ाती है। 1000-1100 रुपये माहवार पाती है। अर्थ यह है कि परिवार की मालकिन सुबह दूध वाले को फुलपावर से एक बोतल दूध के लिए आवाज़ लगा सकती है।

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कई रोज से एक भिखारी बाबा गली से गुजरते हुए उस मकान के सामने ठहरकर गुहार लगाता है—

‘भगवान के नाम पे, कोई फटा पुराना कम्बल दे दे...’

‘कई दिनों से भूखा हूं, एक कटोरी चावल दे दे...।’

घर का किशोर उससे चिढ़ा हुआ है। जब भी वह बाबा गुहार शुरू करता है, वह छज्जे में आकर उसे चिढ़ाता है। आज भी वह बाबा उस मकान के सामने गुहार लगा रहा है—

‘बहुत भूखा हूं। एक कटोरी चावल दे दे...’

मकान के बाहर खड़ा किशोर स्वयं में बुदबुदाया...

उसका पिता बीमार है, मां को काम नहीं मिला आज, बड़ा भाई सुबह से गायब है। कनस्तर खाली है, खाने को कुछ नहीं है, तिस पर यह भिखारी...!’

उसके मुंह में कसैलापन भर आया।

किशोर को वहां खड़े देख बाबा की गुहार में ताक़त आ गई—

‘बेटा, तुझे तरक्की मिले, खुशी मिले।’

‘...!’

‘बेटा, तेरी हवेली बनी रहे।’

एकाएक किशोर के पेट में भूख के बल पड़ने लगे और वह चिल्लाया, ‘बाबा, हम तो किरायेदार हैं।’

और वह वहां से खिसक लिया।

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