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आत्मीय अहसासों से सराबोर शारीर तत्त्व मीमांसा

पुस्तक समीक्षा
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अरुण नैथानी

भारतीय ऋषि-मुनियों और मनीषियों ने अनुभूत विषयों को तार्किक कसौटी पर कसते हुए आयुर्वेद के आधार पर जो चिकित्सा पद्धति बनायी, कालांतर यूनानी आदि अन्य चिकित्सा पद्धतियां भी उसी आधारभूमि पर विकसित हुईं। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य की रक्षा और रोगों का उपचार रहा है। आयुर्वेद की धारणा है कि केवल रोग का अभाव ही स्वास्थ्य नहीं है, बल्कि नकारात्मक विचारों और लोभ-वासना की प्रबलता भी हमें रोगी बना देती है। आयुर्वेद के दैवीय ज्ञान की अवधारणा के रूप में वैशेषिक और न्याय दर्शन, तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है।

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कालांतर में जहां तांत्रिकों और पाखंडियों ने इस चिकितसा विधा की प्रतिष्ठा को आंच पहुंचाई, वहीं मुगल आक्रांताओं ने इस ज्ञान को नष्ट किया। विशेष रूप से 1197 में बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखे सैकड़ों ग्रंथों को जला कर राख कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने जड़ी-बूटी आधारित भारतीय चिकित्सा पद्धति को नकार कर जबरन एलोपैथी थोप दी।

‘पंचम वेद' कहे जाने वाले आयुर्वेद को महर्षि चरक की चरक संहिता, महर्षि वाग्भट्ट की ‘अष्टांग हृदय संहिता’, सुश्रुत कृत ‘सुश्रुत संहिता’ तथा ‘आयुर्वेद संहिता’ ने समृद्ध किया। जनमेजय के नाग यज्ञ की पावन भूमि — सर्पदमन (सफीदों) निवासी आयुर्वेद मार्तण्ड पं. रामस्वरूप शास्त्री ने आयुर्वेद ज्ञान यज्ञ में शारीर तत्त्व मीमांसा पुस्तक के रूप में अपनी आहुति दी। आयुर्वेदाचार्य के रूप में उनकी ख्याति इतनी थी कि वर्ष 1958 में भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें ‘आयुर्वेद मार्तण्ड’ की उपाधि से सम्मानित किया। लगभग 43 वर्ष पूर्व प्रकाशित उनकी यह पुस्तक शारीर तत्त्व मीमांसा कालांतर में आउट ऑफ प्रिंट हो गई थी।

उल्लेखनीय है कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘शारीर’ शब्द का अर्थ ‘शरीर से संबंधित’ होता है। कालांतर उनकी पुत्री शिक्षिका और साहित्यकार सुरेखा शर्मा ने अथक प्रयास कर इस पुस्तक को जीर्ण-शीर्ण अवस्था में किसी पुस्तकालय से ढूंढ़ निकाला। फिर उनके कुछ अप्रकाशित लेखों समेत इस पुस्तक को पुनः प्रकाशित किया।

इस पुस्तक में पं. रामस्वरूप शास्त्री ने नवग्रह, नव रत्न, नव धातु और नव अंक का शारीरिक दृष्टि से गहन विश्लेषण किया है तथा व्याख्या की है कि ये किस प्रकार रोग निवारण में सहायक होते हैं। ‘दूत निदान’ विधि में उन्होंने बताया है कि कैसे वैद्य, रोगी की दशा का समाचार लेकर आने वाले व्यक्ति के हाव-भाव, चेष्टाओं आदि को देखकर रोगी के उपचार की दिशा तय कर सकता है।

पुस्तक में मन, मस्तिष्क और हृदय का विशद विवेचन करते हुए, उनकी विकृतियों से उत्पन्न रोगों का उल्लेख किया गया है। साथ ही, नाड़ी विज्ञान की भी जानकारी दी गई है। लेखक ने आज भयंकर रूप ले चुके कैंसर के कारणों और उससे बचाव की जानकारी देकर आयुर्वेदाचार्यों का मार्गदर्शन किया है। ‘पहला सुख निरोगी काया’ के उद्घोष के साथ यह पुस्तक वात, पित्त, कफ, हृदय, मन, निद्रा, अबुर्द (कैंसर), अर्श, अश्मरी (पथरी), धातु, पंचकर्म आदि का विशद वर्णन करती है। पुस्तक अत्यंत उपयोगी, पठनीय और संग्रहणीय है।

पुस्तक : शारीर तत्त्व मीमांसा लेखक : पं. रामस्वरूप शास्त्री संपादन : सुरेखा शर्मा प्रकाशक : हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन, गुरुग्राम पृष्ठ : 216 मूल्य : रु.₹500.

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