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सर्व-हारा

लघुकथा
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बलराम अग्रवाल

जैसे ही कार उसके नजदीक से गुजरती, भौंकते हुए वह आदतन-सा उसके साथ दौड़ पड़ता।

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आखिरकार, एक दिन मैंने कार साइड में रोकी और दरवाजा खोलकर नीचे उतर आया। पूछा, ‘जाते-आते क्यों भौंकते हो हर बार?’

‘तुम पर नहीं, कार पर भौंकता हूं।’ वह बोला।

‘क्यों?’

‘हम पूंजी के खिलाफ हैं।’

‘लेकिन, मैं तो ड्राइवर हूं, सर्वहारा श्रेणी का आदमी!’

‘होगे; कार पूंजी का प्रतीक है और इसमें बैठे आदमी को सर्वहारा नहीं माना जा सकता!’

‘अभी कुछ दिन पहले तुम एक बाइक-सवार पर भी भौंकते नजर आए थे?’

‘हमारी नजर में स्कूटी-बाइक भी पूंजी ही हैं!’

‘उससे पहले एक साइकिल वाले को भी खूब दौड़ाया था तुमने!’

‘मुझ जैसे ग्रासरूट लेवल के शख्स को जो चीजें मुहैया नहीं हैं, वे सब पूंजी की श्रेणी में आती हैं!’

‘बकवास मत करो। एक दिन, जब मैं पैदल यहां से गुजर रहा था, तुम एकाएक मुझ पर ही झपट पड़े थे, याद है?’

‘खूब याद है!’

‘उसके बारे में क्या सफाई है?’

‘देख रहे हो कि जब से पैदा हुआ हूं, नंगा घूम रहा हूं! लिबास वालों पर हमला मेरा मौलिक अधिकार बनता है कि नहीं?’

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