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मेट्रो की कहानियों का नया रंग

पुस्तक समीक्षा
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शहरों को जानने-समझने के कई चश्मे होते हैं, उनमें एक नई किस्म जुड़ गई है ‘मेट्रोनामा - हैशटैग वाले किस्से’ की शक्ल में। राजकमल प्रकाशन के इंप्रिंट ‘सार्थक’ से प्रकाशित इस किताब में किस्सागोई का भी एक नया अंदाज देखा जा सकता है। लेखक देवेश ने राजधानी दिल्ली के सीने पर यहां से वहां दौड़ने वाली मेट्रो की सवारी करते हुए कुछ साल पहले हैशटैग मेट्रोनामा के साथ सोशल मीडिया (फेसबुक) पर अपने अनुभवों को अपने फॉलोअर्स के लिए परोसने की शुरुआत की थी। किस्सों के उस सिलसिले को किताबी जामा पहनाकर पाठकों के समक्ष परोसा गया है।

कुछ कहानियां ‘क्यूट’ हैं, जिनमें शरारतें, चुहल हैं जो अपने आपको लिखवा ले गई हैं। कुछ आपके होंठों पर मुस्कान की एक लकीर छोड़ जाती हैं। लेकिन कुछ को पढ़ने के बाद लगता है जैसे उन्हें किरदारों और घटनाओं के खांचे में गढ़ा गया है और किसी तरह खींच-तानकर मेट्रोनामा के अन्य किस्सों-कहानियों की कतार में खड़ा कर दिया गया है। कुछ कथाओं के मामले में लगता है जैसे उनके संदेश और निष्कर्ष पहले से तय करके रखे थे और उनके गिर्द कहानी का ताना-बाना बुरा गया हो। जो हो, एकाध किस्से पढ़कर किताब बंद करने का मन नहीं होता, आप किताब को आगे पलटना, पढ़ना चाहते हैं। हल्का-फुल्का साहित्य जिसे आप मेट्रो में आते-जाते हुए, रेल यात्रा में, क्लीनिक के बाहर अपनी बारी का इंतजार करते हुए पलटना चाहेंगे।

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किताब की भाषा सरल, बोलचाल वाली है जो इसे रवानी देती है। पूरी किताब में प्रूफ-रीडिंग की कसावट सुकून का विषय है। कहीं-कहीं रेखाचित्रों की छींटाकशी दिखती है, ये अधिक होते तो किताब में और रसवृद्धि करते।

पुस्तक : मेट्रोनामा : हैशटैग वाले क़िस्से लेखक : देवेश प्रकाशक : सार्थक (राजकमल प्रकाशन का उपक्रम), नयी दिल्ली पृष्ठ : 206 मूल्य : रु. 250.

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