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संघर्षशील इतिहास का जीवंत कथानक

पुस्तक समीक्षा
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राजकिशन नैन

डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार ने अपने कथा संग्रह ‘बलिदान का प्रतिशोध’ में राजे-रजवाड़ों के आपसी वैमनस्य और सामंती व्यवस्था की सच्ची स्थिति से रू-ब-रू कराने वाली कई शोधपरक कहानियां लिखी हैं। इंसानी रिश्तों में आई दरार, मानवीय मूल्यों का क्षरण तथा सामाजिक जीवन के विघटन को एक गहन मानवीय दृष्टि एवं संवेदना के साथ व्यक्त करने वाली कुछ अन्य कहानियों का कथा फलक गांव-कस्बे और शहर से लेकर ब्रिटेन की सत्ता लिप्सा तक फैला हुआ है।

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डॉ. विद्यालंकार का यह बीसवां कथा संग्रह है। इन्होंने साहित्य की विविध विधाओं में छात्रों, अध्यापकों और शोधकर्ताओं के लिए अत्यंत उपयोगी व प्रामाणिक सामग्री जुटाने हेतु जो अनथक श्रम किया है, वह ज्ञान के प्रसार में पूर्ण समर्थ है। संग्रह में 15 कहानियां समाहित हैं। यथार्थ पर आधारित इन कथाओं का भावपक्ष महनीय एवं मुग्धकारी है। इनकी भाषा मुहावरों, लोकोक्तियों और लोकरंजक पदों से सज्जित है। रियासती काल से जुड़ी कथाएं इतनी सशक्त हैं कि ये शिक्षित विद्वानों के लिए भी उतनी ही उपादेय हैं, जितनी कि अशिक्षित ग्रामीणों के लिए। ‘सत्ता-परिवर्तन या युग-परिवर्तन’ कहानी में जोधपुर और जूनागढ़ जैसी रियासतों के राजाओं व नवाबों की हठधर्मिता दर्शाई गई है, जो अपने राज्य की आश्वस्ति पाकिस्तान में रहते हुए भी चाहते थे। लेकिन लाख चाहने पर भी वे अपनी रियासतों का विलय पाकिस्तान में नहीं करा सके थे। देश की तीसरी सबसे बड़ी रियासत का भारत संघ में विलय एक संपूर्ण युग-परिवर्तन ही था।

‘बलिदान का प्रतिशोध’ भरतपुर के जाट राजा सूरजमल के साहसिक कार्य-कलापों, उनके जीवन-संघर्ष और उनके विजयाभियानों से जुड़ी न भूलने वाली कथा है, जिन्हें दिल्ली के बादशाह मोहम्मद शाह द्वितीय के समय शाही सेनापति नजीबुद्दौला ने धोखे से कत्ल किया था। ‘घर वापसी का प्रस्ताव’ कश्मीर के गूजर-बकरवालों की कथा है, जो कश्मीर नरेश रणवीर सिंह के पास यह फरियाद लेकर आए थे कि हमारे पूर्वज भी शिवभक्त थे, सो आप हम सबकी शुद्धि करवाकर हमारी घर वापसी का प्रबंध करें।

‘शरणागत वत्सलता का मूल्य’ अंग्रेजों के छल-बल और कपट की कहानी है, जिसके तहत उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाकर भारत भर में अंग्रेजी राज्य का विस्तार किया था। ‘वतन की याद’ जूनागढ़ के नवाब मोहब्बत खान की दर्दभरी दास्तान है। नवाब ने अपनी रियासत को पाकिस्तान में विलय करने का विवेकहीन निर्णय लिया था और अपने एक अबोध बालक व अपनी बेगम को अनारक्षित छोड़कर माल-असबाब समेत करांची चला गया था। ‘धरोहर का रक्षक’ एक विलासी ठाकुर द्वारा किसी गरीब किसान का धन और जमीन हड़पने की कथा है। ‘जनतंत्र की बोली’ में विस्थापन, पूंजीवाद और उपभोक्तावाद द्वारा विस्थापित खंडित जीवन-मूल्यों को उकेरा गया है। ‘अमानत की रक्षा का गुनहगार’ कहानी ‘तुम रहे जाट के जाट-मेवों वाली बात कहां रही’ कहावत को चरितार्थ करती है।

पुस्तक : बलिदान का प्रतिशोध लेखक : डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार प्रकाशक : अनीता पब्लिशिंग हाउस, गाजियाबाद पृष्ठ : 160 मूल्य : रु. 500.

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