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प्रेम, पीड़ा और परिपक्वता की यात्रा

पुस्तक समीक्षा

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सुभाष रस्तोगी

साहित्यकार डॉ. कुमुद रामानंद बंसल समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में लेखिका, अधिवक्ता और शिक्षाविद् के रूप में सुपरिचित हैं। अब तक उनकी 23 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें 4 काव्य-संग्रह, 5 हाइकू-संग्रह, 2 मुक्तक-संग्रह तथा 1 कहानी-संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। डॉ. कुमुद द्वारा संपादित 28 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, साथ ही उन्होंने दो पुस्तकों का अनुवाद भी किया है।

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उनके लेखन की एक विशिष्टता यह है कि उनकी रचनाओं में अध्यात्म की एक अन्तःसलिला निरंतर प्रवाहित होती रहती है। डॉ. कुमुद का हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘चरैवेति-चरैवेति’ भी इसका अपवाद नहीं है।

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इस उपन्यास के केंद्र में मुख्यतः दो पात्र हैं—अबीर और कुहूकिनी। दोनों की भेंट एक हवाई यात्रा के दौरान होती है और अबीर पहली ही मुलाक़ात में कुहूकिनी के प्रति आकृष्ट हो जाता है। अबीर भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक दिग्गज शख्सियत है। कुहूकिनी को विश्वप्रसिद्ध एक समाचार पत्र के लंदन कार्यालय में स्थायी नियुक्ति मिल जाती है। दफ्तर पहुंचते ही उसे ज्ञात होता है कि उसे विगमोर हॉल में भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक कार्यक्रम कवर करना है। वहीं पुनः उसकी अबीर से भेंट होती है, जिसे वह संयोग मानती है।

बाद में, अबीर भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रतिष्ठित हस्ती होते हुए भी व्यवहार से एक पशु सिद्ध होता है। कुहूकिनी कोविड-19 से ग्रस्त हो जाती है। एक दिन अबीर को अपने समक्ष पाकर वह पहले तो हतप्रभ रह जाती है, परंतु औपचारिकतावश उसका स्वागत करती है। अबीर दिन-रात उसका ध्यान रखता है, जिससे कुहूकिनी प्रभावित होती है और अंततः अबीर उसका विश्वास जीत लेता है। परंतु अबीर के भीतर छिपा वासना का पशु इसी अवसर की तलाश में था। जैसे ही उसका उद्देश्य पूर्ण होता है, वह कुहूकिनी को छोड़ कर चला जाता है और फिर लौट कर नहीं आता।

लेकिन कुहूकिनी इस व्यवहार से न तो टूटती है और न ही अंतर्मुखी होती है। उसे यह बोध हो जाता है कि वह अबीर की नियति नहीं, निर्मिति है। ऐसे ही क्षणों में उसके मन में ऐतरेय ब्राह्मण उपनिषद का शुभंकर मंत्र ‘चरैवेति’ एक दिव्य प्रकाश की भांति कौंध उठता है— चलते रहो, अविराम चलते रहो, क्योंकि निरंतर गतिशील रहना ही तो जीवन है। कुहूकिनी अध्यात्म के मार्ग की पथिक है, और वह जानती है कि परम तक की लंबी यात्रा केवल निरंतर गतिशील रहने से ही संभव है।

लेखिका स्वयं इस उपन्यास के लेखन उद्देश्य के बारे में कहती हैं—‘व्यक्तिगत ऊर्ध्वगमिता तथा समाज को भारतीय सांस्कृतिक अवधारणाओं के अनुरूप जीवन जीने की प्रेरणा देना ही इस उपन्यास का उद्देश्य रहा है।’

प्रेम के बारे में लेखिका की उक्तियां उनके गहरे अनुभव और चिंतन का परिणाम हैं। ‘चरैवेति-चरैवेति’ अर्थात निरंतर गतिशील रहना, इस उपन्यास का जीवन-दर्शन बनकर सामने आता है, जो इसे चिंतन का एक सशक्त और गहन धरातल प्रदान करता है।

पुस्तक : चरैवेति-चरैवेति लेखिका : डॉ. कुमुद रामानंद बंसल प्रकाशक : डायमंड पॉकेट्स बुक्स. लि. नई दिल्ली पृष्ठ : 206 मूल्य : रु. 150.

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