एक भूला-बिसरा गौरवशाली ‘स्त्रीदेश’ : The Dainik Tribune

एक भूला-बिसरा गौरवशाली ‘स्त्रीदेश’

एक भूला-बिसरा गौरवशाली ‘स्त्रीदेश’

चित्रांकन : संदीप जोशी

वक्त के थपेड़ों में इतिहास के दस्तावेजों से गुम हुए पन्नों को शोधपरक ढंग से तलाशने वाले और सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों के लेखक हैं आशीष कौल। उनका पहला परिचय यह है कि वे चार दशक तक कम्यूनिकेशंस एक्सपर्ट के रूप में नेतृत्व प्रदान करते रहे हैं। पांच बेस्ट सेलर किताबें देने वाले आशीष ने इतिहास से जुड़े उन गौरवशाली पन्नों को उजागर किया है जिनमें देश-समाज के नींव के पत्थरों का जिक्र है। नीलमत पुराण और राजतरंगिणी के निष्कर्षों व बाकी रह गये खंडहरों की कड़ियां जोड़ छह साल के शोध के बाद उन्होंने ऐसा दस्तावेज पेश किया है जिसमें कश्मीर के इतिहास की तेरह रानियों के देश व कश्मीर को योगदान का पता चलता है। जिन्होंने आधुनिक सभ्यता की बुनियाद रखी। इनसे मिलकर एक भूला-बिसरा गौरवशाली ‘स्त्रीदेश’ सामने आता है। उनसे हुई बातचीत के अंश :-

अरुण नैथानी

आज समाज साहित्य को हल्के से लेने लगा है। लोगों के लिये साहित्य दिल्लगी बनकर रह गया है। यह आम धारणा बनी कि साहित्यकार है तो कविता व कहानी लिखता होगा। सही मायनों में साहित्यकार देश की प्रगति की कुंजी हुआ करता था। अपने सृजन से देश को दिशा देता। देश की नियति तय करता। समाज में पनपने वाली कुरीतियों पर प्रहार करता था। व्यवस्था में सुधार के लिये जो बताता था, प्रशासन संज्ञान लेकर उस पर ध्यान देता था। आज बहुत कुछ बदल गया है। जो साहित्यकार समाज में अग्रणीय हुआ था, बदलाव के लिये प्रयास करता था, आज वह ड्राइंग रूम में वाइन का गिलास लेकर बड़ी-बड़ी बातें करता है।

लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि समाज कैसे बदलेगा। वे जो बातें करते हैं वे महज बातें रह जाती हैं। मीडिया ओवर किल हो जाती है। हमारे भूले-बिसरे सरोकारों की कड़ियां खोलने की एक कोशिश मैंने आज से साढ़े सात साल पहले की। मेरा पहला प्रोजेक्ट था- स्त्रीदेश। जिन्होंने सारी दुनिया को नये आयाम दिये जो बेंचमार्क बने। उन महिलाओं की कहानी जिन्होंने समाज के फंडामेंटल आधार दिये। अब चाहे पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम हो, कर सुधार हो, लोकतंत्र हो, पब्लिक पॉलिसी हो, नहर व्यवस्था हो, वॉर फेयर, बैंकिंग सिस्टम हो या पहली ब्लैक कमांडो फोर्स हो। कश्मीर में अलग-अलग समय पर रानियों ने इसकी नींव रखी। अब चाहे पहली पेड फौज हो या को-ऑपरेटिव सिस्टम। दुनिया का पहला कमांडो दस्ता हिंदुस्तानी महिला की देन है। कुल मिलाकर दुनिया को चलाने वाला मजबूत तंत्र इन महिला रानियों ने दिया। गुरिल्ला वॉर इनकी देन रहा।

दरअसल, दसवीं शताब्दी के भारत में इस्लाम ने दस्तक दी। इनके आक्रमण के बाद सब कुछ बदल गया। हमारी सभ्यता पुरुषवादी व्यवस्था बन गई। मेरी पुस्तक ‘स्त्रीदेश’ का विमोचन विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी ने किया। इसमें ऐसी राज करने वाली तेरह महिलाएं हैं जिनका इतिहास में जिक्र नहीं।

एक कम्यूनिकेशंस एक्सपर्ट व बिजनेस लीडर की तीन दशक की सफल पारी के बाद इन संवेदनशील विषयों पर लिखने के बाबत वे बताते हैं कि दरअसल, हमारे पहाड़ की ताकत हमें संवेदनशील बनाती है। लिखना-पढ़ना हमारे संस्कार में रहा। कश्मीरी पंडित होने के नाते हमने विस्थापन की त्रासदी देखी। एक ही मिल्कियत, हमारी संपदा कुछ है तो ज्ञान। अमरत्व को लेकर धारणा रही है कि हम अमर हो सकते हैं। हम मानते हैं कि असली अमृत ज्ञान है। हमने अपने पीछे जो धरोहर छोड़ी, अपना साहित्य छोड़ा है, यदि आने वाली पीढ़ियां उससे सबक लेती हैं तो हम अमर हो जाते हैं। अगर हम सशरीर अमर हो जाते हैं तो फिर भगवान व आप में कोई फर्क नहीं रहेगा। अमरत्व का कांसेप्ट ही साहित्य है। हमने सेलेब्रिटी होने का भ्रम पाल लिया है।

अक्सर हम झोलाछाप पत्रकारों की बात करते हैं। इस प्रोफेशन में झोला छाप पत्रकार था तो समाज के भले के लिये, उसके झोले में सहजता, सरलता व ज्ञान था। आज लोग सेलेब्रिटी बनने के लिये पत्रकारिता में आते हैं। आज ज्यादा एंकर बनना चाहते हैं। वे सोचते हैं शोहरत का आसान तरीका। सही मायनों में पत्रकार भगवान की आवाज होता है। समाज की आवाज के लिये इसका महत्व होता है। आज वो इज्जत खत्म होती जा रही है। समाज में कुरीतियां है, लैंगिक भेदभाव है। जब भी महिलाओं के साथ अपराध होता है, तर्क दिये जाते हैं उसने कम कपड़े पहने थे, शराब पी थी, ब्वायफ्रेंड के साथ थी। ये असली कारण से भटकाव है। वास्तविक मुद्दा है कि क्राइम नहीं होना चाहिए था। हमने इस्लाम के आगमन के बाद एक ऐसा समाज बना दिया जिसमें महिलाओं की भागीदारी हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करती है।

दरअसल, दसवीं सदी के समाज को सोने की चिड़िया इसलिए कहा जाता था क्योंकि महिलाएं समाज में सशक्त थीं और व्यवस्था में निर्णायक थीं। उन्हें समाज में कोई डर नहीं था। महिलाएं समाज को अपने हिसाब से चलाती थीं। यह विडंबना है कि 1947 के बाद समाज में महिलाओं की सामाजिक भूमिका को कमतर आंका गया। यह धारणा बनी कि महिला को जिंदा रहने के लिये पुरुष की जरूरत है। महिलाओं का साहित्य में बड़ा रोल रहा है। दरअसल, यह दौर प्रोफेशनल पेरेंटिंग का नहीं है। भारत में इमोशनल पेरेंटिंग होती है। बेटी को ज्यादा प्यार मिलने लगा है। बेटों को सिखाया जाता है महिलाओं को खड़े होकर सम्मान दो। दरअसल, महिलाओं को रिस्पेक्ट देकर कहीं न कहीं एहसान दिखाते हैं। महिलाओं की अलग लाइन बनायी जाती है। संस्कारों के चलते हम अपनी मां- बहन के साथ गलत व्यवहार नहीं करते। अपराधियों की भी मां-बहन होती है लेकिन वे दूसरों की मां-बहन को वह सम्मान क्यों नहीं देते। इसके पीछे धारणा बना दी गई है कि ये हम से कमजोर हैं। महिलाओं को अलग दृष्टि से देखने से महिलाएं रोल मॉडल नहीं बनी। हम देखें कि आज समाज के हर हिस्से में महिला रोल मॉडल्स नहीं। दुर्भाग्य से हम जिन महिला रोल मॉडल्स की बात करते हैं, वे उदाहरण के लिये अमेरिका की वाइस प्रेजीडेंट हैं। जिनका पासपोर्ट भारतीय नहीं है। हम उनके कुछ बनने पर होली-दीवाली मनाते हैं। हम उन्हें देवी बताते हैं लेकिन व्यवहार राक्षसों वाला करते हैं। देश में पचास प्रतिशत महिलाएं हैं लेकिन महिला रोल मॉडल्स कितने हैं? हमारी पौराणिक मान्यता रही है कि शक्ति के बिना शिव शव हैं। आज के समाज को पता होना चाहिए कि इस देश में पेड पुरुषों की फौज की स्थापना रानी सुगंधा ने की, जो एक वफादार सेना साबित हुई।

दरअसल, मुगलों की सेना जीत के बाद लूटपाट इसलिए करती थी कि उन्हें वेतन नहीं मिलता था और लूटपाट से वे अपना मेहनताना निकालते थे। आज हिंदुस्तानी फौज कहीं लूटपाट नहीं करती क्योंकि उनकी देखभाल सरकार करती है। जबकि आज सेना की बहादुरी की चर्चा पुरुषों के नाम के साथ की जाती है। अब चाहे ‘उड़ी’ फिल्म हो या ‘बॉर्डर’ केवल पुरुषों का जिक्र होगा। दुनिया का पहला कमांडो दस्ता भारतीय महिला ने बनाया। दसवीं शताब्दी में कश्मीर की सशक्त महिला शासक के रहते बावन साल किसी माई के लाल की हिम्मत नहीं हुई कि भारत की तरफ आंख उठाकर देखे। ये रानी दीद्दा की कहानी है। ये हमारे इलाके वाला साम्राज्य था जिसमें आधुनिक परिवेश में हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर व पाकिस्तान आदि का इलाका शामिल था। रानी दीद्दा की शादी कश्मीर के राजा क्षेम गुप्त के साथ हुई थी। वहीं लोरेन का इलाका था इस राजवंश की राजधानी। ये वही साम्राज्य था जिसने दो बार आक्रांता गजनी को हराया। लेकिन उसका विदेशियों द्वारा लिखे इतिहास में जिक्र नहीं होता।

इस फौज का नेतृत्व रानी दिद्दा ने किया। दीदी व दादी की कहानी इस महिला के दीद्दा के नाम से शुरू होती है। ये शब्द हमें गौरवशाली नाम देता है लेकिन हमें इसके बारे पता नहीं था। विडंबना देखिये कि जब उसका जन्म हुआ तो मां-बाप ने उसका त्याग कर दिया क्योंकि वह लंगड़ी पैदा हुई थी। एक नौकरानी ने उसको पाल-पोस कर बड़ा किया। यह कालखंड 925 ईस्वी का है। विडंबना देखिये कि एक समृद्ध परिवार में बेटी पैदा होती है, उसका त्याग कर दिया जाता है। नौकरानी ने दूध पिलाया और पाल-पोस कर बड़ा किया। उसे समाज ने प्रताड़ित किया। लेकिन उसी को दुनिया में सबसे लंबे समय तक रानी होने का गौरव मिला। एक शक्तिशाली रानी जिसने अपने दम पर राज किया। किसी ने मदद नहीं की और न ही मदद मांगी। उसके आगे बड़े-बड़े राजाओं के घुटने कांपते थे। दसवीं सदी में उसके राज में समृद्धि लहलहा रही थी और देश के साढ़े छह सौ राज परिवार अय्याशी में डूबे थे। भारत को सोने की चिड़िया इसलिए कहा गया कि शासन-प्रशासन में महिलाएं निर्णायक थीं। तब भारत की रखवाली एक महिला कर रही थी। आज हम क्राइम अगेंस्ट वूमेन को महिमामंडित करते हैं। हम पद्मावत जैसी महिला की चर्चा करते हैं। दीद्दा को पति के मरने पर जब सती करने का प्रयास किया गया तो उन्होंने इस प्रथा के दौर में अक्ल से इस्तेमाल करते हुए अपने व बेटे के प्राणों की रक्षा की और दुश्मनों का खात्मा किया। इसके लिये लेखक ने प्रमाणिक दस्तावेज जुटाये, कई बायोग्राफियों का सहारा लिया। फिर भारत सरकार ने मान्यता दी।

इस रानी के शासनकाल की ऐसी गौरवशाली गाथा थी कि कोई आक्रांता हिम्मत नहीं करता था भारत की तरफ देखने की। एक मायने में अखंड भारत की नींव रखी। खुली चेतावनी कि हिंदुस्तान पर हमले से पहले हमसे टकराना होगा। सुरक्षा व सेना की जो संरचना रानी ने की उनकी मृत्यु के दो दशक बाद भी देश को इसने बचाया।

इसी तरह रानी कल्हिनिका के दौर में संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना हुई। सात सेक्टोरियल एक्सपर्ट देश चलाते थे। कैबिनेट में बैठकर शासन के निर्णय लेते। सात शीर्ष लोग पॉलिसी तय करते। वे जो बिल लाते थे, कैबिनेट पारित करती। फिर रानी पास करती थी। फिर वो राजा के पास जाता था।

महिला शक्ति का वो समाज देखें कि दीद्दा पर एक सिक्का राजा क्षेमगुप्त ने जारी किया था अपनी बीवी की प्रशस्ति में। यह बताने को कि वह मेरे से अच्छा राज चलाती है। आज के बाद मुझे मेरी बीवी के नाम से जाना जाए। फिर उन्हें दीद्देक्षेम गुप्त के नाम से जाना गया।

मेरा ऐसा मानना है कि दसवीं सदी का भारत गौरवशाली विश्व गुरु बना तो तब सब बातों में महिलाएं निर्णायक थीं। इस बेंच मार्क के साथ व्यवस्था कि वे बेहतर प्रशासक हैं। लेकिन आज 33 फीसदी आरक्षण महिलाओं को देने में राजनेता डरते हैं। पुरुषों को स्त्री से सेवा लेने की आदत है। वे डरते हैं कि ये सेवा खत्म हो जायेगी। मैंने इस लैंगिक समता के मुद्दे पर देश की 70 यूनिवर्सिटियों व स्कूल-कालेजों के दस हजार बच्चों से जेंडर न्यूट्रल सोसायटी के बारे में बात की। साथ ही केंद्रीय शिक्षा मंत्री से इन महिला नायिकाओं को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात कही।

कश्मीर की दो महिलाएं सेनानायक और भी थीं। वे दोनों अलग-अलग समय में हुईं। नाम थे- शिल्ला और चुद्धा। इन दोनों के समय में करीब 100 साल का अंतर है। वे सामान्य मध्यवर्गीय परिवारों से थीं। फौज में भर्ती हुईं और अपने दम पर कश्मीर की सेनाओं का नेतृत्व किया। कश्मीर साम्राज्य की कमांडर-इन-चीफ बनीं। आज महिलाओं के हितों के लिए कॉस्मेटिक फेवर होता है, मैरिट पर नहीं। नेताओं को इन वीरांगनाओं के बारे में नहीं पता। अशोक के पोते ने कश्मीर पर हमला किया तो राजा मैदान से भाग गया। चुद्धा दो दिन तक लड़ी। हमें ये कहानियां नहीं पता।

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