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जाति व्यवस्था का आलोचनात्मक अवलोकन

हर्षदेव भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था का आज भी गहरा संबंध बना हुआ है। जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की धुरी है, जो आर्थिक, सामुदायिक, जातीय, वर्गीय और व्यक्तिगत संबंधों का संचालन करती है। साहित्य में इस व्यवस्था को लेकर...

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हर्षदेव

भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था का आज भी गहरा संबंध बना हुआ है। जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की धुरी है, जो आर्थिक, सामुदायिक, जातीय, वर्गीय और व्यक्तिगत संबंधों का संचालन करती है। साहित्य में इस व्यवस्था को लेकर दो स्पष्ट धाराएं रही हैं। एक ओर, प्रेमचंद की ‘गोदान’ इसकी सशक्त अभिव्यक्ति है, जबकि दूसरी ओर, तुलसीदास ने वर्ण व्यवस्था को महान और सत्य के रूप में स्थापित किया। तुलसी ने कबीर और रैदास की ब्राह्मण विरोधी निर्गुण भक्ति से संघर्ष करते हुए ब्राह्मणवादी मनुवाद को जनमानस में पुनः स्थापित किया।

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प्रेमचंद की ‘गोदान’ ने इस तर्क-विरोधी जाति व्यवस्था को समाज के यथार्थ के माध्यम से उजागर किया। फिर भी, जाति व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि संतों, सूफियों, समाज सुधारकों और सामाजिक आंदोलनों के बावजूद, उसका प्रभाव बरकरार रहा। प्रो. चंचल चौहान के अनुसार, जाति व्यवस्था पराधीन रखने वाली व्यवस्था का विस्तार है, जो विभिन्न समाजों में अलग-अलग नामों से एक विचारधारा का रूप ले चुकी है। इसका उद्देश्य समाज में ऊंच-नीच के वर्ग विभाजन को बनाए रखना था। इस व्यवस्था को तर्क से दूर रखने के लिए इसे ईश्वर रचित बताया गया, जिससे प्रश्न उठाने की गुंजाइश समाप्त हो गई।

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सामाजिक और आर्थिक समानता की समस्या का सामना करने के लिए दलित सौंदर्यशास्त्र की व्याख्या की गई। प्रो. चंचल चौहान ने इस विषय का विस्तार से विवेचन किया है। उन्होंने दलितों को यूरोपीय समाज के दासों की श्रेणी में रखा है, जिनका 19वीं-20वीं सदी तक शोषण होता रहा। इस प्रथा को मजबूत करने के लिए मिथक गढ़े गये। गीता में ‘चातुर्वर्ण्यम‍् मया सृष्टम‍्’ कहकर इसे पुष्टि मिली।

आज़ादी की लड़ाई के दौरान छायावाद और प्रगतिवाद ने आम आदमी को रचना का केंद्र बना दिया। पहले तिरस्कृत यह व्यक्ति, दृष्टिकोण में परिवर्तन के साथ महत्वपूर्ण बन गया। यही साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र है। आज़ादी के साथ संविधान ने समता का मूल्य रेखांकित किया, जिससे दलित चेतना का उदय हुआ। नवशिक्षितों ने पराधीनता से मुक्ति की सोच विकसित की।

जगदीश चंद्र ने अपनी उपन्यास त्रयी से इस सोच की परंपरा को आगे बढ़ाया। ओमप्रकाश वाल्मीकि और शरण कुमार लिंबाले ने इस वैचारिक चेतना को मज़बूती प्रदान की। लिंबाले ने गरीब और उत्पीड़ित समुदाय के जीवन को सरल किंतु मार्मिक शैली में चित्रित किया है। दलित साहित्य केवल साहित्य नहीं, बल्कि परिवर्तन लाने के आंदोलन से जुड़ा है।

पुस्तक : साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र लेखक : प्रो़ चंचल चाैहान प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली पृष्ठ : 254 मूल्य : रु. 399.

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