स्नेह गोस्वामी
रज्जी ने अपने भीतर की सारी हिम्मत जुटाई। मजबूत कदम रखती बैठक में आ गयी। उसे बापू जी एक दिन में ही कमजोर और बीमार लगने लग गये थे। अभी दीवार से कमर लगाए पलंग पर बैठे थे। रज्जी धीरे से उनके पास जमीन पर बैठ गयी। आंखों में आंखें डाल बोली, ‘बापू जी मैं जानती हूं, आप मुझ से बहुत नाराज हैं। आप जतिन से नहीं मिलना चाहते, मत मिलिए। मैं भी उससे कभी नहीं मिलूंगी। मेरा आपका खून और मांस का रिश्ता है बापू जी। अपने आप से यूं दूर मत करिये मुझे। मैं मर जाऊंगी।’
राजवंत ने नजर घुमाकर कमरे को देखा। कमरा भी उसकी तरह गमगीन हो रहा था। वो कमरा जो हमेशा गुलजार रहता था, घर भर के लोगों के ठहाकों से, मोबाइल की रिंगटोन से, वीडियोकाल की आवाजों से। उसकी अपनी हंसी बात बेबात गूंजती रहती खिलखिल-खिलखिल बिना वजह। वो हंसी, वो ठहाके हमेशा के लिए खो गये थे।
अभी परसों रात की ही तो बात है, खाना खाने के बाद सारा परिवार आंगन में एक साथ बैठा था। सबको दूध का गिलास देने के बाद मां रसोई में और बाबूजी कमरे में जाने लगे तो कब से दिल की गहराई में छिपे लफ्ज बड़ी मुश्किल से होंठों पर आ ही गये, ‘बाबू जी मैं आपको किसी से मिलाना चाहती हूं। कल या आप जब कहो।’ जाते-जाते निरंजन सिंह ने सवालिया नजरों से रज्जी को देखा। मां की नजरों में सारे जहान के डर सिमट आये।
दीपे ने लहक कर पूछा, ‘कौन से देश का प्रधानमंत्री है री रज्जी, जिसे तू बापूजी से मिलवाने को उतावली हो रही है।’
बड़े मीते ने दबका मारा, ‘देख लड़की कोई चन्न न चढ़ा दियो। सिद्धुओं के खानदान में कोई ऐसी-वैसी हरकत बर्दाश्त नहीं करेंगे हम।’
ये उसके छोटे भाई थे। कल रात तक ये दोनों भाई अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए उसकी मिन्नतें करते नहीं थकते थे और आज एकदम से बड़े बन गये थे।
मां ने बात खत्म करते हुए कहा, ‘सुबह देखेंगे। कब किससे मिलना है। अभी सो जाओ चुपचाप। सब सोने चले गये थे।’
राजवंत भी उठ कर अपने कमरे में आ गयी थी। उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। अचानक बाहर तेज आंधी चल पड़ी। पत्तों की खड़-खड़ के साथ तेज हवाएं शोर मचाती भागी चली आ रही थी। दीवार पर टंगा कैलेंडर बुरी तरह से हिल रहा था। मां ने सारे कमरों की खिड़कियां-दरवाजे बंद कर पर्दे तान दिये थे ताकि बाहर की तूफानी हवाएं बाहर से ही अडोल लौट जाएं।
राजवंत के अपने दिमाग में इस समय आंधियां चल रही थीं। राजवंत इस घर की सबसे बड़ी बेटी। मां और खास करके बाबूजी की सबसे लाडली। पढ़ाई-लिखाई में सबसे तेज। जो सुन लेती, जो पढ़ लेती, फटाफट याद हो जाता। ऐसा याद होता कि कभी भूलता ही नहीं। हमेशा अव्वल आती। हर बार उसका रिपोर्ट कार्ड देख बापू गर्व से भर जाते–‘जितना पढ़ना चाहेगी, उतना पढ़ाऊंगा। अफसर बनेगी अपनी रज्जी।’
दोनों भाइयों का पढ़ाई में जरा दिल न लगता। सरकार की नीतियों के चलते किसी तरह दसवीं तो कर गये पर मीते ने ग्यारहवीं में दो बार फेल हो कर पढ़ाई छोड़ दी तो दीपा फेल होने के डर से बारहवीं के बोर्ड एग्जाम देने गया ही नहीं। दोनों ने खेत में संतरे और किन्नू लगवा लिये थे, जिन्हें ठेके पर दे, दोनों दिन भर आवारागर्दी करते। अच्छे दिन के सपने देखा करते।
बापू को रज्जी पर पूरी भरोसा था। ये लड़की उनका नाम अवश्य रोशन करेगी। बड़ी जहीन लड़की है। हर काम में उसकी सलाह ली जाती– इस लड़की का फैसला कभी गलत नहीं हो सकता।
रज्जी सोच रही है। उसने तो कोई फैसला लिया ही नहीं। सिर्फ अपने घर वालों को जतिन से मिलवाना चाहा था। कैसे विश्वास से जतिन को कह कर आई थी, ‘देखना, तुम से मिल के मेरे घर वाले कोई एतराज नहीं करेंगे। सब ठीक हो जाएगा।’ पर यहां तो बात शुरू होने से पहले ही कानी हो गयी। फालतू में तिल का ताड़ बन गया। अब सुबह पता नहीं क्या होगा।
इन्हीं सोचों में डूबी वह आधी सोई-आधी जागी सुबह होने का इंतजार कर रही थी कि आधी रात में ही मां उसके बिस्तर पर आ बैठी। अभी तो रात के दो ही बजे थे। घबराहट के मारे राजवंत का कलेजा बुरी तरह उछल गया। वह उठ कर बैठ गयी।
‘हाय रज्जी ये तूने क्या किया बच्ची?’
वह तड़प उठी थी। ‘मैंने क्या किया? मैंने तो कुछ भी नहीं किया। एक लड़का है। उसका नाम जतिन है। जतिन खन्ना। मेरे जितना ही पढ़ा है। एम.काम. किया है उसने। बराबर का पढ़ा-लिखा है। मां-बाप का इकलौता है। मेरे ही दफ्तर में काम करता है। शरीफ है। मुझसे शादी करना चाहता है। इसलिए मैंने सोचा आप लोग मिल लें। ठीक लगे तो…। फिर आप का जो भी फैसला हो।’ उसे अपने ही शब्द बेगाने लगे। बोल वह रही थी बेशक पर जेहन में घूम रहे थे रजिया के बोल–अब्बा हुजूर, यह याकूब है। बहुत बहादुर। बहुत भरोसेमंद।
मां नि:शब्द सुनती रही थी। लम्बी सांस ले इतना ही कह पायी, ‘रज्जी बिटिया तूने अपने आंचल में कांटे डाल लिए। बात करके देखूंगी। आगे तेरी किस्मत। वैसे मैं तो यही सलाह दूंगी कि उसे भूल जा।’
अंधेरे में उसने महसूस किया कि मां रो रही थी। उसका मन किया कि आगे बढ़कर मां के आंसू पोंछ ले। पर उसने कुछ नहीं किया, कुछ भी नहीं। अपने आंसुओं को चुपचाप बह जाने दिया।
सवेरे का सूरज अपने साथ कयामत लेकर आया। उसका मोबाइल तो रात में ही जब्त हो गया था। अब उसका दफ्तर जाना रोक दिया गया। कम्प्यूटर, लैपटाप आदि उठाकर कहीं और रख दिया गया। वह अपने ही घर में नजरबंद कर दी गयी थी।
उसे हंसी कम, झुंझलाहट ज्यादा हुई–भागना होता तो कल दफ्तर से सीधे न भाग जाती। घर आ कर इतना फजीता करवाने की क्या जरूरत थी।
पर शायद ऐसा ही होना था। सोच-सोच के उसका दम घुटने लगा। पंखे की हवा लग ही नहीं रही थी। उसने दरवाजे से झांका। रसोई में खाना बनाती मां पड़ोसन चाची के साथ संधुओं की लड़की के बेरहमी से किये गये कत्ल पर चर्चा कर रही थी। कत्ल पिछले हफ्ते ही हुआ था। संधुओं की लड़की मनदीप ने दो गली छोड़ के रहते अपनी से छोटी जाति के मान लड़के से कोर्ट मैरिज कर ली थी। कोर्ट से घर लौट रहे दोनों को परिवार के मर्दों ने तलवारों और किरचों से काट दिया था और लाश रेलवे ट्रैक पर फेंक आये थे।
आज मां को ऐसे किस्से बहुत याद आ रहे थे। सुबह से तीन किस्से उसे सुना-सुना कर कह चुकी है। पहली कहानी धोबियाना बस्ती की घटना है जो करीब महीना भर पुरानी है। किसी मां ने अपनी बेटी की रोटी में चूहे मारने वाली दवाई इसलिए मिला दी थी कि बेटी को कोई लड़का पसंद आ गया था। वह लाख समझाने के बाद भी उसी से शादी की जिद पर अड़ी थी। इज्जत बचाने का परिवार के पास एक ही रास्ता था–अपनी बेटी की मौत। और सारे परिवार ने मिल कर मां को उस रास्ते पर चलने के लिए मना लिया था (ये बात अलग है कि लाख एहतियात के बावजूद बात अखबारों तक पहुंच गयी थी और उस औरत को जेल हो गयी। जिस बदनामी से बचने के लिए यह इतना खतरनाक कदम उठाया, वह बदनामी तो फिर हो गयी)।
दूसरी कहानी कैंट की थी। एक बी.ए. कर रही लड़की ने घरवालों से चोरी कोर्ट में शादी कर ली। घर वालों ने बाकायदा उसका तर्पण किया और उससे सदा-सदा के लिये अपने रिश्ते खत्म कर लिये। थोड़े दिन बाद तबादला करा कर वहां से किसी अज्ञात शहर चले गये।
तीसरा किस्सा मोगा के पास की किसी रिश्तेदारी का था। मोगा जिले के पास किसी गांव में रहते थे वे लोग। उनकी लड़की ने गांव के गुरद्वारे में गुरु महाराज की हजूरी में गांव के किसी गैर-जाति के लड़के के साथ लावां फेरे ले लिये थे और घर वालों के गुस्से से डरते दोनों तुरंत गांव छोड़ कर भाग गये थे। घर वालों ने नजदीक दूर की कोई रिश्तेदारी नहीं छोड़ी थी जहां जाकर न देखा हो पर शायद दोनों को ही इसका अंदाजा था। इसलिए वे किसी रिश्तेदारी में गये ही नहीं। बहुत ढूंढ़ने पर भी न तो पुलिस को उनकी खबर मिली, न भाइयों को कोई सुराग मिला। पूरा एक साल लगातार खोजने पर भी कोई खबर नहीं मिली तो लोग दांतों तले उंगली दबा कहने लग गये, ‘ओये आसमान निगल गया या धरती खा गयी। आखिर दोनों गये तो गये कहां।’ साल के आखिर में सब थक-हार कर बैठ गये। समय बीतता गया। बात पुरानी होकर भूलने वाली हो गयी। अब अमरपाल और करमजीत का जिक्र उदाहरणों में भी होना बंद हो गया।
धीरे-धीरे सात सात बीत गये। फिर एक दिन होनी को बरतना था, सो बरत गयी। सात सालों में पहली बार अमरपाल गोदी में बेटे को लिए, बेटी की उंगली थामे करमजीत के साथ कोटकपूरा के बस स्टैंड पर खड़ी मुक्तसर की बस का इंतजार कर रही थी कि घात लगाये बैठे उसके भाइयों को खबर लग गयी। आनन-फानन में जीप आ बस के सामने लगी। जब तक किसी की कुछ समझ में आता, दो सगे और दो चचेरे भाइयों ने कुल्हाड़ी और चारा काटने वाले कापे से बहन, जीजा, भानजी और भानजे चारों को बुरी तरह से काट डाला। फिर खुद ही थाने जाकर पेश हो गये।
रज्जी का मन किया, इस सब से दूर भाग जाये। वह छत पर गयी। वहां मूंग सूखने डाली हुई थी। वह आहिस्ता-आहिस्ता मूंग में हाथ फेरने लगी। सामने बठिंडा के किले की दीवार है। सुना है, कभी इन दीवारों पर हाथी चला करते थे। सवारों को पीठ पर बैठाए घोड़े दौड़ा करते थे। इन्हीं दीवारों की बुर्जियों में दिल्ली की पहली महिला शासक रजिया सुल्ताना कैद थी। रज्जी रजिया को याद कर रही है। रजिया के नालायक भाई ऐशो-आराम में मस्त रहने वाले कमजर्फ शहजादे थे, जिनका दिन शराब से शुरू होता तो रात शबाब के आंचल में खत्म होती। इल्तुतमिस ने रजिया को अपना वारिस घोषित कर दिया। रजिया बेगम जलालाद उद दिन रजिया से रजिया सुलतान हो गयी। पर पुरुषवादी सोच वाले समाज को यह मंजूर न हुआ। जगह-जगह विद्रोह होने लगे। रजिया ने बड़ी बहादुरी से सेना का संचालन किया और फतेह हासिल की। इन सभी अभियानों में पिता द्वारा दिए गये अंगरक्षक याकूब ने उसकी कदम-कदम पर रक्षा की। रजिया जीत हासिल कर दिल्ली पहुंची तो अपवाद और बदनामी उससे पहले ही वहां पहुंच चुकी थी। इन अफवाहों से बचने के लिए उसने बठिंडा के किलेदार अलतुनिया से निकाह कर लिया। अलतुनिया महत्वाकांक्षी व्यक्ति था जो खुद दिल्ली के तख्त को हासिल करना चाहता था। उसने बठिंडा किले में पहुंचते ही रजिया को कैद कर लिया। रजिया ने हिम्मत नहीं हारी और एक दिन मौका मिलते ही किले की दीवार से सीधे घोड़े की पीठ पर कूदी और कैद से फरार हो गयी। परंतु हांसी से आगे नहीं जा पायी। वह दिल्ली और बठिंडा दोनों ओर के सैनिकों से घिर गयी। हिसार और हांसी के बीच जंगल में भयानक युद्ध हुआ। अंतिम समय में याकूब ही उसके साथ था। दोनों बहुत बहादुरी से लड़े और शहीद हो गये। उनकी कब्र वहीं बना दी गयी।
राजवंत एकटक बुर्जियों को देख रही है। इन्हीं बुर्जियों में से किसी एक बुर्जी में रजिया कैद रही होगी। बिल्कुल उसी तरह जैसे वह आज कैद है अपने बड़े से घर के छोटे से कमरे में। दूर पीछे वाली दीवार के साथ लग कर खड़ा दीपा कहने को तो मोबाइल पर गाने सुन रहा है पर असल में उसकी एक-एक हरकत पर निगरानी करने आया है। शायद रजिया की तरह मैं भी छत से छलांग लगा अपने याकूब के साथ भाग जाऊं।
‘मैं नीचे जा रही हूं।’ उसने दीपे को आवाज दी, यह जताने के लिए कि उसने उसे देख लिया है।
‘तो मैं क्या करूं, जाना है तो जा।’ दीपा खुद को लापरवाह दिखाने की कोशिश कर रहा है।
एक शब्द भी बिना बोले वह सीढि़यां उतर कर नीचे आ गयी। तीन मिनट बाद ही दीपा भी नीचे आ गया। पड़ोसन चाची अपने घर जा चुकी। अब दीपा मां से लड़ रहा है।
‘और पढ़ाओ इसे। बना लो अफसर। अच्छा-खासा रिश्ता आया था बारहवीं करते-करते। अगले की पूरे बीस किल्ले जमीन थी। राज करती राज और न भी करती, ये मुसीबत तो न आती। न जी न, हम तो इसे साहब बनाएंगे। किसी अफसर से ही शादी करेंगे।’ उसने बापू की नकल उतारते हुए मुंह बनाया।
कोई अलग समय होता तो दीपे की इस हरकत पर रज्जी ने हंस-हंस के दूुहरे हो जाना था पर आज उसे गुस्सा आ गया। अच्छा भला अफसर है जतिन पर इन सब की आंखों पर तो जातपात की पट्टी बंधी है। जुबान पर आई बात उसने पूरा जोर लगाकर गले में ही रोक ली। घर में शोले पहले ही भड़के हुए हैं, कुछ बोलने का मतलब शोलों को हवा देने जैसा हुआ। वह अंदर चली गयी।
मां ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘चुप कर दीपे, थोड़ी देर में तेरी बड़ी बुआ आती होगी। उसने अपने जेठ के लड़के के साथ रज्जी के रिश्ते की बात चलाई है। देख कोई उल्टी-सीधी बात करके बात बिगाड़ मत देना।’
रज्जी का दिल बैठ गया। फूफा का वह मैला-कुचैला गंदा-सा भतीजा। न अक्ल, न शक्ल। देख के लगता है कई दिन से नहाया न हो। उसके पास तो खड़े होने में ही जी मिचलाता है, जिंदगी काटना…। पर अब जैसे हालात बने हुए हैं, कोई उसकी मर्जी पूछेगा भी नहीं। वह जिबह के लिये ले जायी जाती बकरी की तरह उस आदमी के पीछे-पीछे चल पड़ेगी, जिसके साफे के साथ उसका दुपट्टा बांध दिया जाएगा। वह सारी जिंदगी उसकी मर्जी से उठेगी-बैठेगी। हर रोज छुरी उसके जिस्म पर चलेगी और वह उफ भी नहीं कहेगी। ऐसा वह अपने साथ कैसे होने दे सकती है। उसके इतना पढ़ने-लिखने का फायदा ही क्या हुआ, अगर वह भी अनपढ़ औरतों की तरह चुपचाप जुल्म सहती रही।
रज्जी ने अपने भीतर की सारी हिम्मत जुटाई। मजबूत कदम रखती बैठक में आ गयी। उसे बापू एक दिन में ही कमजोर और बीमार लगने लग गये थे। अभी दीवार से कमर लगाए पलंग पर बैठे थे। रज्जी धीरे से उनके पास जमीन पर बैठ गयी। आंखों में आंखें डाल बोली, ‘बापू जी मैं जानती हूं आप मुझसे बहुत नाराज हैं। आप जतिन से नहीं मिलना चाहते, मत मिलिए। मैं भी उससे कभी नहीं मिलूंगी। मेरा आपका खून और मांस का रिश्ता है बापू जी। अपने आप से यूं दूर मत करिये मुझे। मैं मर जाऊंगी।’
अचानक बापू जी की हथेली ने उसका मुंह बंद कर दिया था। अब वह हिचकियां ले-लेकर रो रही थी। ‘बापू जी वह गुरजंट फूफा की भतीजा, वह नशेड़ी, जिसे लड़की छेड़ने के लिए जेल में दो रात काटनी पड़ी… आपने ही तो दोस्त को कह के उसकी जमानत करायी थी।’
बापू ने उसके सिर पर हाथ रखा हुआ था। मां जो इतनी देर से चौखट थामे खड़ी थी, अब मुस्कुरा रही थी। ‘उठ हाथ-मुंह धो के अपने दफ्तर दो दिन की छुट्टी भेज दे।’
उसने अविश्वास से मां-बापू को देखा।
‘और हां सुन, कल शाम को जतिन को चाय पर बुला ले। हम भी तो देखें ये जतिन साब हैं कौन।’ असंख्य चिराग एक साथ जल उठे थे।