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एमरजेंसी के साढ़े 19 माह की दुखद यादें

भिवानी : आपातकाल को लगे आज पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। उन दिनों की पीड़ा, कष्ट व अत्याचारों को याद कर आज भी शरीर में कंपकंपी छूट जाती है। 25 जून की देर रात डीएसपी के नेतृत्व में पुलिस...
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भिवानी : आपातकाल को लगे आज पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। उन दिनों की पीड़ा, कष्ट व अत्याचारों को याद कर आज भी शरीर में कंपकंपी छूट जाती है। 25 जून की देर रात डीएसपी के नेतृत्व में पुलिस का आना और थाने चलने का निर्देश देना काफी कठोर लगा। डीएसपी ने मेरे दादा पं. रवीन्द्रनाथ वशिष्ठ व मेरे पिता पं. देवब्रत वशिष्ठ और मुझे थाने चलने को कहा। दादाजी ने उन्हें सुबह थाने आने का आश्वासन देकर जैसे-तैसे विदा किया। सुबह पांच बजे पुलिस पुन: आ पहुंची। तब तक दादाजी ने हिन्दू पांचांग से देख लिया था कि लम्बी जेल यात्रा का योग है। इसलिए साधारण कपड़ों में ही जाना तय कर दोनों पिता-पुत्र थाने में चले गए। मुझे नाबालिग व ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते घर की जिम्मेदारी देखने के लिए साथ नहीं लिया गया।

सुबह आठ बजे जब हम नाश्ता देने थाने पहुंचे तब तक थाने में ठाकुर बीर सिंह, सागरराम गुप्ता, हीरानन्द आर्य, चौधरी जगन्नाथ, जगबीर सिंह सहित पचास नेताओं को थाने में बैठा लिया गया था। उस दिन वह संख्या बढ़ती ही जा रही थी। किसी को भी यह नहीं पता था कि कौन किस केस में गिरफ्तार किया गया है। उन्हें बिना किसी अदालत में पेश किए न मालूम कहां ले जाया गया। लगभग बीस दिन तक किसी भी परिवार को यह नहीं बताया गया कि किसे, कौन सी जेल में रखा गया है। बीस दिन बाद चौधरी देवीलाल को हिसार जेल से बदलकर पुलिस बस में महेन्द्रगढ़ ले जाया जा रहा था, तब उन्होंने ही हमारे आवास चेतना सदन में बस रुकवाकर खाना लिया व बताया कि भिवानी वाले लोगों को हिसार जेल में रखा गया है। जेल में इन सभी राजनीतिक कैदियों से परिजन का सदस्य सप्ताह में एक बार डीसी की स्वीकृति लेकर एक घंटे भेंट कर सकता था। इधर पुलिस ने 26 जून को ही घर पर दस-पन्द्रह सिपाहियों की स्थायी रूप से ड्यूटी लगा दी। गिरफ्तारी के साथ ही संकटों व अत्याचारों का दौर शुरू हो गया। मेरे परिवार की गुजर-बसर का साधन मुख्य रूप से हमारे समाचार पत्र से ही चलता था। जिसके विज्ञापन सरकार ने पहले ही बंद कर रखे थे। अखबार पर बंदिशें लगा दी गई। हर सप्ताह जिला लोक सम्पर्क अधिकारी हर पृष्ठ को चैक करके ही उसे छपने की स्वीकृति देते थे। समाचार पत्र में हर सप्ताह बीस व पांच सूत्री कार्यक्रम प्रकाशित करने व केवल सरकारी खबर देने के ही निर्देश दिए जाते थे। परिवार के दोनों कमाने वाले जेल में जाने से सब हालात डगमगा गए।

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इधर बीस फरवरी 1976 को सुबह पुलिस ने आकर बताया कि मेरे वारंट रद्द हो गए है, इसलिए पुलिस को हटाया जा रहा है। वह सब एक नाटकीय चाल थी। उसके चलते मैं घर से बाहर आ गया और अपने परिवार की जरूरतों का कुछ समान लेकर शाम 6 बजे के आसपास स्कूटर से घर पहुंचा तो वहां खड़े कथित गुंडों ने मुझे सरियों व लाठियों से बेतहाशा मारकर बेहोश कर दिया। उस समय मुझे पास ही रहने वाले बृहनललाओं (हिजड़ों) ने मेरे ऊपर कूदकर मेरी जान बचाई।

भिवानी के डॉक्टरों ने पुलिस केस बताकर इलाज से मना कर दिया गया। आठ दिन रोहतक मेडिकल कॉलेज में चले इलाज के बाद हमलावारों को मेडिकल में अपने ही वार्ड में देखकर मजबूरन वहां से छुट्टी लेकर हम मां-बेटे भिवानी आए। मुंह-अंधेरे भिवानी अपने घर पहुंचते ही बाहर भारी महिला-पुरूष पुलिस को देख जी पकड़ा गया। पूछताछ में पता चला कि मेरी माताजी संतोष वशिष्ठ द्वारा अखबार का प्रकाशन करने को लेकर केस दर्ज किए गए हैं।

परिवार को आर्थिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित और परेशान करने के कारण हालात ये हो गए कि मेरे दादाजी व पिता जी को अलग-अलग जेलों में रखा गया, ताकि आर्थिक रूप से कमर टूट जाए। मुझे कथित गुण्डों द्वारा मारे जाने की जानकारी जैसे ही मेरे दादाजी को हिसार जेल में मिली तो उन्होंने मुझे देखने के नाम पर दस दिन की पैरोल की गुहार लगाई जिसे सरकार ने नकार दिया। बात यहीं तक नहीं थी हद जब हो गई जब मैं कुछ ठीक होने के बाद अपनी मां के साथ अम्बाला जेल में मिलने गया तो हम मां-बेटा के पास दादाजी व पिताजी से मिलने का डीसी द्वारा जारी अनुमति पत्र था, लेकिन मुझे मेरे दादाजी से यह कर कर मिलने नहीं दिया कि आप दोनों का खून का रिश्ता नहीं है। इसलिए आप बातचीत नहीं कर सकते। वहां बैठे अन्य बड़े दिग्गज राजनेताओं की गुहार का भी कोई असर जेल अधिकारियों पर कोई असर नहीं था। जबकि मेरे माताजी अपने ससुर से एक घंटे सीआईडी कर्मचारी की उपस्थिति में बात कर चुकी थी। मेरे बात न करने देने के निर्देश ऊपर से जारी होने की बात कर पुलिस कर्मचारियों ने पत्थर दिल बनते हुए दादा-पोता को रोने पर मजबूर कर दिया। जुल्मों सितम की दास्तान इस कद्र थी कि हम पांच-भाई बहनों को मजबूरन भिवानी छोड़ अपने मामा के यहां श्रीगंगानगर अपनी पढ़ाई करनी पड़ी। चरमराई अर्थव्यवस्था में बाजार के दुकानदारों ने तो उधार देना ही बंद कर दिया। किसी को उस जेल अवधि के बारे में यह नहीं लगता था कि ये लोग कब जेल से छूटेंगे। आखिर में आपातकाल के अंतिम दौर में पिताजी को अम्बाला जेल में उनकी गिरती शारीरिक हालात को देख 16 जनवरी को रिहा किया गया। जबकि दादा को आपातकाल हटने के बाद रोहतक जेल से रिहा किया गया। आतंरिक सुरक्षा जैसे सख्त कानून के तहत जेल में बंदी बनाने के पीछे अहम् कारण यह भी रहा कि केन्द्रीय स्तर के रजानेताओं स्व. मोरार जी देसााई, चौ. चरण सिंह, चौ. देवीलाल, चौ. चांदराम, पं. भगवत दयाल शर्मा, पं. श्रीराम शर्मा, डॉ. मंगल सैन सहित प्रदेश के विपक्षी नेताओं की चेतना सदन में नियमित बैठकें, सलाहमशविरा व राजनीतिक मंथन के लिए आना-जाना था।

-श्रीभगवान वशिष्ठ

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