जोगिंद्र सिंह/ट्रिन्यू
चंडीगढ़, 25 अप्रैल
पंजाब विश्वविद्यालय के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के छात्रों ने लुधियाना की एक टेक्सटाइल इंडस्ट्री वर्सेटाइल और डीआईआर नाम की एक एनजीओ के साथ मिलकर महिलाओं के लिये अधिक सुरक्षित और किफायती पैड तैयार की है जो माहवारी के ‘उन दिनों’ में उन्हें न केवल आत्मविश्वास देगी बल्कि उन्हें होने वाली अनचाही बीमारियों से भी निजात दिलायेगी। 100 से भी अधिक इनेक्ट्स टीम के सदस्यों ने नये बिजनेस मॉडल के तौर पर पिछले 11 साल में समाज से जुड़े कई अहम मसलों का हल खोजा और ऐसे प्रॉडक्ट उपलब्ध कराये जो इको-फ्रेंडली, सस्ते और टिकाऊ हों। इनेक्ट्स ने विभाग के सालाना उत्सव साइनाइड के आयोजनों की कड़ी में प्रोजेक्ट ‘उदय’ के तहत प्रो. सीमा कपूर के मार्गदर्शन में माहवारी से निपटने के लिये कॉटन की ‘आमोदनी-मिथारक’ नाम से ऐसी पैड तैयार की हैं जो बार-बार इस्तेमाल की जा सकेंगी। एनजीओ डीआईआर और लुधियाना की वर्सेटाइल कंपनी के साथ मिलकर इनेक्ट्स ‘नो प्रोफिट नो लॉस’ के आधार पर फिलहाल ये प्रॉडक्ट उपलब्ध करा रही है।
वर्सेटाइल इंडस्ट्री के डायरेक्टर अखिल सेठ ने बताया कि फिलहाल कई देश उनसे पैड में इस्तेमाल हो रहा कॉटन मंगा रहे हैं। अच्छा रिस्पांस मिलने पर वे इसका बड़े स्तर पर उत्पादन कर सकते हैं और बच्चों और बुजुर्गों के लिये भी इसे थोड़ा सुधार कर तैयार कर सकते हैं। इनेक्ट्स के अध्यक्ष अक्षित कालड़ा ने सभी का स्वागत करते हुए बताया कि 28 से 30 अप्रैल तक कई आयोजन होंगे जिसमें सांस्कृतिक, तकनीकी और फन से जुड़े कार्यक्रम शामिल हैं। विभाग की पूर्व चेयरपर्सन अमृतपाल तूर ने सभी का परिचय कराया।
गांव-गांव लेकर जायेंगे : रजनी
एनजीओ द रीड्स की सीईओ डॉ. रजनी लांबा ने बताया कि पहले उन्होंने कुछ गांवों में इसे प्रयोग करने को दिया और फीडबैक अच्छा मिलने पर इसका प्रचार बढ़ाया। सभी वर्गों की लड़कियों-महिलाओं को इस बारे में अवगत करा रहे हैं। उन्होंने कहा कि वे हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और चंडीगढ़ में शहरों के अलावा गांवों में काम कर रही हैं। इनेक्ट्स ग्लोबल की इंडिया प्रोग्राम मैनेजर एंड कन्सल्टेंट इबादत जिश्टू ने बताया कि बाजार में मिलने वाली पैड में 90 फीसदी तो प्लास्टिक ही है जो एक नष्ट नहीं होती दूसरा महिलाओं के हार्मोन को भी प्रभावित करती है जबकि आमोदनी को करीब दो साल तक उपयोग में लाया जा सकेगा। इस मौके पर कुछ बनिता आदि महिलाओं ने पैड बारे अपना फीडबैक भी दिया।
लैब टेस्ट में 100 फीसदी खरी उतरी : सीमा कपूर
प्रो. सीमा कपूर ने बताया कि कोविड काल में यह महसूस किया गया कि गरीब महिलाओं को मास्क की बड़ी समस्या आ रही है, जो खुद से इन्हें खरीद कर पहन नहीं सकती थी। ऐसे में उन्होंने इनेक्टस के छात्रों की मदद से लुधियाना के कपिल सेठ और अखिल सेठ से संपर्क किया और ऐसे मास्क बनाने का आग्रह किया। यह प्रयोग सफल रहा और आसपास के गांवों खासतौर से नया गांव में सैकड़ों लोगों को ये मास्क बांटे गये। ‘उदय’ प्रोजेक्ट में महिलाओं के लिये पैड बनाने पर काम चल रहा था और शोध के रिजल्ट भी अच्छे आये। बाद में इन्हें सभी टेस्टों के लिये लैब भेजा गया, जहां ये पीएच, कार्सोजेनिक लेवल, अवशोषण, इचिंग, रेशेज और इन्फेक्शन आदि सभी पैमानों पर खरी उतरीं। फिलहाल नया गांव में 35 महिलाओं को ये पैड बनाने के लिये रोजगार मिला है भविष्य में और लोगों को जोड़ा जा सकता है और इसे अमेजॉन वगैरह पर आनलाइन भी उपलब्ध कराया जायेगा ताकि कम दामों में बढ़िया चीज महिलाओं को मिल सके।
12 बिलियन पैड यूज होते हैं हर साल
वर्सेटाइल ग्रुप की कोआर्डीनेटर गीतांजलि बख्शी ने बताया कि इस प्रोजेक्ट का ख्याल उन्हें 2017 में आया तब तक बालीवुड अभिनेता अक्षय कुमार की पैडमैन फिल्म भी आ चुकी थी। उन्होंने बताया कि परम्परागत पैड की सबसे बड़ी समस्या डिस्पोजल की है, हर साल भारत में करीब 12-13 बिलियन पैड उपयोग में लायी जा रही हैं जो कि एक तरह का बायोवेस्ट हैं मगर इसके निस्तारण का किसी को सही ज्ञान ही नहीं। उन्होंने बताया कि इन पैड को पूरी तरह नष्ट होने में 500-800 साल लगते हैं जिससे ये पर्यावरण के लिये एक बड़ी चुनौती हैं।
न होगी अलर्जी और न ही फंगस : डॉ. रूपिंदर
पीयू हेल्थ सेंटर की सीएमओ डॉ. रूपिंदर कौर ने बताया कि सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये पैड कई-कई बार यूज करने पर भी इन पैड पर कोई अलर्जी नहीं, बैक्टीरिया, फंगस या किसी तरह की कीटाणु आदि पैड पर नहीं होते। पैड में किसी तरह के टॉक्सिन नहीं है जबकि बाजार में मिलने वाली सभी कंपनियों की पैड में जैल, अल्ट्रा जैल, प्लास्टिक होता है जिससे न केवल इचिंग होती है, रेशेज पड़ जाती है और कई बार यौन व चर्म रोग भी हो जाते हैं।