जोगिंद्र सिंह/ट्रिन्यू
चंडीगढ़, 10 फरवरी
एक तरफ जहां केंद्र और राज्य सरकारें गरीबों-दलितों के लिये कई सारी योजनाएं ला रही हैं, वहीं दूसरी ओर ये योजनाएं ज्यादा फलीभूत होती दिखायी नहीं पड़ रही। चुनावी मौसम में सभी राजनीतिक दल गरीबों और दलितों के लिये बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं। कोई मुफ्त शिक्षा की बात कहता है, कोई स्कॉलरशिप देने की, कोई स्कूटी और मोबाइल देने के वादे कर रहा है। केंद्र सरकार ने तो बाकायदा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान चला रखा है लेकिन इस सबके बावजूद जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। सामाजिक-आर्थिक मजबूरियों के चलते बेटियां खासतौर से दलित परिवारों की 10 में से चार बेटियां (40 फीसदी) प्राइमरी में दाखिला लेने बाद दसवीं तक आते-आते पढ़ाई छोड़ने को विवश हो रही हैं। यह खुलासा पंजाब विश्वविद्यालय के एजुकेशन विभाग द्वारा पंजाब के मानसा जिले में दलित बेटियों की पढ़ाई को लेकर कराये गये एक अध्ययन में हुआ है। एजुकेशन विभाग की प्रो. सतविंदरपाल कौर के निर्देशन में पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में कार्यरत मनदीप कौर ने अपने पीएचडी के शोध कार्य के लिये यह अध्ययन किया है। सर्वे में मानसा जिले की उन दलित बेटियों को शामिल किया गया जिन्होंने आर्थिक तंगी के चलते अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। मनदीप कौर के इस सर्वे से खुलासा हुआ कि प्राइमरी लेवल पर पंजीकरण के बाद दसवीं तक आते-आते 40 फीसदी दलित बेटियों की पढ़ाई छूट जाती है। नौवीं तक आते-आते 26.7 फीसदी बेटियां और पढ़ाई छोड़ जाती है। दसवीं में आने पर करीब 13.3 और लड़कियों स्कूल छोड़ देती हैं। इन बेटियों ने बताया कि कई सारे इनसेंटिव (स्कॉलरशिप) मिलने के बावजूद स्कूल छोड़ने के कई कारण हैं। गरीबी और माता-पिता का किसी नौकरी में न होना एक बड़ा कारण है। गांव में दलित बेटियों को उनके घर की खराब हालत पढ़ाई छोड़ने को विवश करती है। पढ़ाई छोड़ने के बाद ज्यादातर लड़कियां दिहाड़ी-मजदूरी करती हैं क्योंकि इनमें से 50 प्रतिशत का कहना है कि उनका पढ़ाई बीच में छोड़ने का कारण सामाजिक-आर्थिक बैकग्राउंड ही है। पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों में से ज्यादातर के पेरेंट्स खेत-मजदूर हैं जिनके पास नियमित रोजगार नहीं है। स्कूल छोड़ने वाली लड़कियां में से 43 फीसदी के पिता अनपढ़ हैं जबकि 75 प्रतिशत की माताएं अशिक्षित हैं। घर के हालात ऐसे बन जाते हैं कि मजबूरन उन्हें पढ़ाई छोड़कर दो पैसे कमाने के लिये मां-बाप के साथ कामकाज में हाथ बंटाना पड़ता है। अभिभावकों का मानना है कि घर के हालात ऐसे हैं कि वे अपनी बच्चियों को आगे नहीं पढ़ा पाते जबकि शिक्षकों और प्रशासकों का मानना है कि गरीबी और घरवालों का असहयोगत्मक रवैया बेटियों की पढ़ाई जारी रख पाने में सबसे बड़ा रोड़ा है।
डेटा में नाम दिखता है, पर नहीं आती स्कूल
प्रो. सतविंदर कौर ने बताया कि सरकार की तरफ से आरटीई (शिक्षा का अधिकार) लागू है जिसके तहत सभी बच्चों का स्कूली स्तर तक पढ़ना अनिवार्य है। लेकिन हैरत की बात ये है कि स्कूली शिक्षा पाने से पहले ही 50 फीसदी दलित लड़कियां ड्रापआउट हो जाती हैं। हालांकि डेटा में उनका नाम शो कर रहा होता है मगर हकीकत ये है कि वे स्कूल से लगातार गैरहाजिर रहती हैं, टीचर्स भी उनका नाम काटने से परहेज करते हैं क्योंकि उन्हें सरकार को जवाब देना होता है। जबकि दूसरी ओर ये बेटियां घर-परिवार चलाने में मां-बाप का हाथ बंटाती हैं। पेरेंट्स को सरकार की तरफ से मिलने वाली स्कॉलरशिप का लालच रहता जिस कारण वे नाम नहीं कटाते लेकिन अपनी बच्चियों को स्कूल भी नहीं भेजते।