जफरगढ़ किला : टूटी दीवारों से फिर गूंजेगा जींद रियासत का शौर्य
आज यह खामोश है, लेकिन इतिहास की परतें पलटें तो यहां हथियारों की खनक, घोड़ों की टापों की गूंज और सेनापतियों की गहन चर्चाओं की आवाजें सुनाई देने लगती हैं। अब राज्य सरकार ने इस किले को फिर से संवारने का बीड़ा उठाया है। 5 करोड़ 52 लाख 72 हजार रुपये का बजट और 18 महीने की समय सीमा तय की गई है। मंजूर किए गए बजट से ढही हुई संरचनाओं का मूल स्थापत्य शैली में पुनर्निर्माण होगा। दीवारों को संरचनात्मक मजबूती दी जाएगी। मुख्य द्वार और टावर ऐतिहासिक स्वरूप में फिर से बनाए जाएंगे। साथ ही आसपास के क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा।
18वीं सदी में सिख मिसलों के दौर ने उत्तरी भारत का राजनीतिक नक्शा बदल दिया था। इन्हीं हालातों में जींद रियासत की नींव पड़ी। फतेह सिंह आहलूवालिया और गुरदित्त सिंह जैसे योद्धाओं की संगत में जींद के शासकों ने अपना परचम बुलंद किया। राजधानी कभी जींद, कभी सफीदों और बाद में संगरूर बनी।
असल ताकत उन दुर्गों और चौकियों से आती थी, जो रियासत के अलग-अलग हिस्सों में फैले हुए थे। जफरगढ़ किला उन्हीं चौकियों में से एक था। यह न तो भव्य महलों से सजा था और न ही ऊंचे बुर्जों वाला विशाल गढ़। लेकिन रणनीतिक महत्व इसकी असली पहचान थी। जींद-रोहतक मार्ग पर नजर रखने, हथियारों को सुरक्षित रखने और सेना की तैयारी का यह सबसे अहम अड्डा माना जाता था।
जफरगढ़ किला आज खामोश है। लेकिन अगर पुनर्निर्माण की योजना तय समय और सही नीयत से पूरी हुई तो यह खामोशी एक बार फिर गूंज में बदल सकती है। घोड़ों की टापों की जगह भले अब पर्यटकों की चहल-पहल हो, लेकिन यह वही गूंज होगी जो इतिहास को आज से जोड़ देगी। यह किला केवल दीवारों और ईंटों का ढांचा नहीं, बल्कि जींद रियासत के गौरवशाली अतीत का प्रतीक है। अगर यह पुनर्जीवित हुआ, तो यह सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि इतिहास की धड़कन बनकर फिर बोलेगा- ‘मैं अब भी यहां हूं, और मेरी गाथा खत्म नहीं हुई।’
यहीं था हथियारों का जखीरा
किले की पहचान केवल सैनिक चौकी तक सीमित नहीं थी। यहां तलवारें, बंदूकें, भाले और बारूद संग्रहीत रहते थे। युद्ध के वक्त यही भंडार सेना को ताकत देता था। अकाल या संकट के समय आम जनता को अनाज और राशन भी यहीं से वितरित किया जाता। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि घुड़सवार दस्तों की तैयारी इसी किले में होती थी। बरादरी-खुले आंगन में खंभों से घिरी बैठक में राजा और सेनापति योजनाएं बनाते थे। घोड़ों की टापें इतनी गूंजती थीं कि जमीन तक कांप जाती थी।
गौरव से वीरानी तक
ब्रिटिश शासन के आखिरी दौर तक आते-आते रियासत की ताकत कमजोर हुई। सत्ता की पकड़ ढीली पड़ी और साथ ही किले की अहमियत भी घट गई। मुख्य द्वार और टावर धीरे-धीरे ढह गए। दीवारें दरारों में तब्दील हो गईं। बरादरी का शाही वैभव बच्चों के खेलने का अड्डा बन गया। आज हालत यह है कि तीन दीवारें तो खड़ी हैं, लेकिन उनमें चौड़ी दरारें हैं। चारों ओर वीरानी पसरी है। बरादरी अब भी जस की तस है, जैसे इंतजार कर रही हो कि कोई फिर से यहां दरबार लगाए।
गांव वालों की उम्मीद
ज़फरगढ़ गांव के बुजुर्गों को आज भी वह दौर याद है जब यह किला जीवन और ऊर्जा से भरा था। एक बुजुर्ग बताते हैं, ‘जब घोड़े बरादरी में घुमाए जाते थे तो उनकी टापों से जमीन कांपती थी। आज अगर सरकार इस किले को संवार दे, तो हमारी अगली पीढ़ी भी उस गौरव को देख सकेगी।’ गांव के युवा भी इसे पर्यटन केंद्र के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि जींद जिले में घूमने के लिए बहुत कम ऐतिहासिक स्थल हैं। अगर ज़फरगढ़ किला विकसित होता है तो यहां न केवल आसपास के लोग आएंगे बल्कि बाहरी पर्यटक भी आकर्षित होंगे।
इतिहास को सांसें देंगे : अरविंद शर्मा
हरियाणा के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री डॉ़ अरविंद शर्मा का कहना है, ‘जफरगढ़ किला केवल जींद जिले की नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर है। हमारी कोशिश है कि इसे उसके मूल स्वरूप में पुनर्निर्मित किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियां रियासत के इतिहास से रूबरू हो सकें। यह स्थल केवल पुरानी दीवारें नहीं, बल्कि उस दौर की वीरता और शौर्य का प्रतीक है। सरकार चाहती है कि यहां पर्यटकों के लिए बेहतर सुविधाएं हों और स्थानीय युवाओं को भी रोजगार के अवसर मिलें।’