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जब ट्रिब्यून को बंद करने के प्रयासों के खिलाफ डटी थी एक बेखौफ शख्सियत

50 साल पहले ट्रिब्यून पर एमरजेंसी का साया
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एम.जी. देवसहायम

पचास साल बाद भी 25-26 जून, 1975 की रात की यादें मेरे ज़हन में ताजा हैं। इसी रात तत्कालीन राष्ट्रपति ने एक घोषणा के साथ कुख्यात आपातकाल लगाया था जिसमें कहा गया था कि ‘एक गंभीर एमरजेंसी उत्पन्न हो गयी है जिससे भारत की सुरक्षा आंतरिक अशांति के कारण से खतरे में है।’ मैं उस समय केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ का जिला

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मजिस्ट्रेट था।

इस घोषणा की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने दिल्ली के मौखिक निर्देशों पर काम करते हुए चंडीगढ़ के मुख्य आयुक्त एनपी माथुर को फोन करके प्रेस को कठोर अनुशासन में रखने का निर्देश दिया। उन्होंने विशेष रूप से मांग की कि क्षेत्र में घर-घर में मशहूर ‘द ट्रिब्यून’ को सील कर दिया जाए और इसके संपादक माधवन नायर को गिरफ्तार किया जाए।

मुख्य आयुक्त माथुर ने बहुत परेशान होकर केंद्रीय गृह सचिव एसएल खुराना को फोन किया, जिन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि क्या हो रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी और राज्य मंत्री ओम मेहता से संपर्क करने के माथुर के प्रयास व्यर्थ साबित हुए। चूंकि वे खुद आश्वस्त नहीं थे, इसलिए उन्होंने मुझे फोन नहीं किया, हालांकि, जिला मजिस्ट्रेट के रूप में, मैं ट्रिब्यून को बंद करने और उसके संपादक को गिरफ्तार करने के लिए औपचारिक आदेश जारी करने के लिए सक्षम प्राधिकारी था। इसके बजाय, माथुर ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एसएन भनोट को फोन किया और ज्ञानी जैल सिंह के निर्देश दिए। हालांकि, एसएसपी ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे जिला मजिस्ट्रेट के लिखित आदेश के बिना कार्रवाई नहीं करेंगे। फिर भी, एसएसपी भनोट ने ट्रिब्यून परिसर का दौरा किया और कर्मचारियों को सलाह दी कि वे ‘सत्ताधारियों’ को नापसंद कुछ भी न छापें। उन्होंने निगरानी रखने के लिए एक छोटी पुलिस टुकड़ी भी तैनात कर दी।

जाहिर है, इसका ट्रिब्यून पर कोई खास असर नहीं पड़ा और अगली सुबह अखबार हमेशा की तरह आपातकाल और जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी की बैनर हेडलाइन के साथ निकला। इस देखकर हरियाणा के मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल भड़क उठे। उन्होंने अपने अनोखे अंदाज में धमकी दी कि अगर चंडीगढ़ प्रशासन ट्रिब्यून को बंद करने और उसके संपादक को गिरफ्तार करने को तैयार नहीं है तो वह हरियाणा पुलिस के माध्यम से यह काम करवायेंगे। एेसा करने के लिये वह समाचार पत्र परिसर पर कब्ज़े से भी नहीं हिचकिचायेंगे। जिला मजिस्ट्रेट के रूप में संकट का समाधान करना मेरा कर्तव्य था। अफ़वाहें जंगल की आग की तरह फैल रही थीं, जिससे शहर में कानून-व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण से बाहर होने का ख़तरा था। दिल्ली दरबार के दबाव में दोनों मुख्यमंत्री हमारे पीछे पड़े हुए थे और कभी भी प्रशासन को अपने हाथ में लेकर ट्रिब्यून को सील कर सकते थे। एेसी स्थिति उत्पन्न न हो,इसके लिये मैंने आपातकाल लागू करने या उससे संबंधित निर्देशों के बारे में केंद्र से कोई आधिकारिक संचार न होने के बावजूद कार्रवाई करने का फ़ैसला किया। मैंने चंडीगढ़ में आईबी के उप निदेशक से आपातकाल अधिसूचना की एक प्रति तुरंत प्राप्त की। मैंने तुरन्त कार्यवाही करते हुए पूरे केंद्र शासित प्रदेश में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर दी। चंडीगढ़ के जनसंपर्क निदेशक एस.के. टुटेजा को भारत रक्षा नियमों के तहत सेंसर अधिकारी नियुक्त किया गया। स्थिति की निरंतर निगरानी के लिए आंतरिक सुरक्षा योजना के तहत एक संयुक्त योजना समिति भी बनाई गई। शाम तक आपातकाल और सेंसरशिप पर आधिकारिक निर्देश आ गए।

‘द ट्रिब्यून’ के वरिष्ठ संवाददाता एसवी बेदी और ट्रस्टी लेफ्टिनेंट जनरल पीएस ज्ञानी ने हमसे मुलाकात की और सेंसरशिप नियमों का पालन करने का वादा किया। हमारे द्वारा उठाए गए इस और अन्य कदमों ने ज्ञानी जैल सिंह और बंसी लाल द्वारा डाले जा रहे दबाव को कम किया, जो दिल्ली दरबार के आगे वफादारी साबित करने की होड़ में लगे थे।

इस तरह द ट्रिब्यून ‘आपातकाल के आकाओं’ के प्रकोप से बच गया। यह प्रकरण न केवल एक समाचार पत्र की ईमानदारी को दर्शाता है, बल्कि उस महत्वपूर्ण समय के दौरान कुछ प्रशासकों की नैतिकता को भी दर्शाता है।

सत्तावादी अतिक्रमण के उस समय में, किसी भी पक्ष ने ‘साहसी’ बनने की कोशिश किये बिना अपने-अपने शांत तरीकों से लोकतंत्र को बचाए रखा। 50 साल बाद, द ट्रिब्यून की आपातकाल की कहानी केवल खुद को बचाये रखने की नहीं है, बल्कि साहस और सावधानी, कर्तव्य और असहमति के बीच संतुलन की भी है। और उस संतुलन में इसकी स्थायी विरासत निहित है।

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