राजनीति इन्हें विरासत में मिली है। सियासत के हर दौर से गुजरे हैं। वक्त के थपेड़े भी खाए हैं और ‘राजयोग’ भी भोगा है। एक वक्त ऐसा भी आया कि 10 साल के लिए तिहाड़ की सलाखों के पीछे जाना पड़ा। खुद भी कहा और परिवार के दूसरे सदस्यों ने भी आरोप लगाए कि राजनीतिक द्वेष और बदले की भावना की वजह से जेल जाना पड़ा। अब सजा पूरी हो चुकी है और जेल से रिहा भी हो चुके हैं। इसे जेल के अनुभव कहें या फिर बड़प्पन कि वो पुरानी यादों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहते हैं। न किसी पार्टी से गिला है और न ही किसी नेता से कोई शिकवा। कहते हैं, ऊपर वाला सब देख रहा है। हां, इतना जरूर चाहता हूं कि जो दिन मुझे देखने पड़े, वह भगवान किसी और को न दिखाए। जी हां, आप बिल्कुल सही समझे। हम बात कर रहे हैं जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) सुप्रीमो और पूर्व सांसद डॉ. अजय सिंह चौटाला के बारे में। जेबीटी भर्ती मामले में 10 साल की उनकी सजा 10 फरवरी को ही पूरी हुई है और अब वे खुली हवा में सांस ले रहे हैं। जेल की कड़वी यादें भी उनके जेहन में हैं और वहां बिताए वक्त के वे लम्हें भी याद हैं, जो जिंदगीभर उनकी यादों में रहेंगे। न सरकार की बात और न पार्टी की, आज हम उनसे चर्चा कर रहे हैं, केवल और केवल उनकी जेल यात्रा को लेकर। यहां प्रस्तुत हैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक नरेश कौशल के साथ डॉ.अजय सिंह चौटाला की ‘जेल डायरी’ को लेकर हुई बातचीत के प्रमुख अंश :
आप और आपके परिवार के आरोप रहे हैं कि राजनीतिक द्वेष और बदले की भावना के चलते जेल जाना पड़ा। फिर भी कोर्ट में दलील क्यों नहीं चलीे?
वो एक बुरा दौर था, जो अब गुजर गया। मैं पिछले पन्ने पलटना भी नहीं चाहता। किसने साजिश रची और क्या-क्या किया, अब मैं उन बातों पर नहीं जाऊंगा। इतना जरूर कहूंगा कि जो दिन मैंने देखे हैं, वे भगवान किसी और को न दिखाए। ऊपर वाला सब देख रहा है। जिन लोगों ने साजिश रची, उनका हिसाब भी भगवान ही करेगा।
लोग कहते हैं कि जेल तो कहने को थी। मेदांता के फाइव स्टार होटल यानी हॉस्पिटल में बाप-बेटा मौज कर रहे थे?
जेल किस वजह से गए, उसका अब क्या जिक्र करें। खैर! जाना पड़ा। जो लोग अस्पताल में फाइव स्टार सुविधाओं की बात करते हैं, मैं उन्हें कहता हूं कि हॉस्पिटल तो जेल से भी बुरी जगह है। वहां खुला वातावरण मिलता है। हजारों लोग साथ होते हैं। अस्पताल में तो एक कमरे में पैक कर देते हैं। बाहर पुलिस का पहरा होता है। वहां फाइव स्टार की क्या सुविधा थी, और क्या मौज थी।
आपका कहने का मतलब, जेल ज्यादा अच्छी है हॉस्पिटल से?
जी, बिल्कुल। मैं तो जेल को बैटर समझता हूं। हास्पिटल में तो मजबूरी में जाना पड़ा। मुझे प्रोब्लम हो गई थी। मेरा गॉल-ब्लैडर फट गया था। ऑपरेशन करवाना पड़ा। उसकी वजह से अस्पताल रहना पड़ा। उसी दौरान मेरा अपेंडिक्स का भी ऑपरेशन हुआ।
जेल में कई तरह की एक्टिविटी होती हैं। आप एजुकेटिड हैं। आप हर साल चौ़ देवीलाल के बर्थडे पर आर्टिकल लिखा करते थे। उस चारदीवारी और बंद दीवारों में कैसे किया?
देखिए, जिस तरह का माहौल होता है, अपने आप को उसी में ढालना होता है। मैं पढ़ा-लिखा था तो मुझे लाइब्रेरी का इंचार्ज बना दिया था। जेल में लाइब्रेरी है बहुत अच्छी। सारी पुस्तकें हैं और अच्छी फैसिलिटी है वहां पर। जो भी बुक्स न हो, तो वे प्रोवाइड करवाते थे। वहां बैठकर मैंने स्टडी की। मैंने बुक भी लिखी जेल पर।
बीच में रोकते हुए – ओह! तो आपकी बुक छप गई, क्या नाम है?
अभी छपी नहीं है, क्योंकि मेरी अभी सजा पूरी हुई है। सजा में रहते हुए मैं उसे पब्लिक नहीं कर सकता था। अब जल्द ही उसे छपवा कर पब्लिक करूंगा।
आपने पुस्तक का नाम नहीं बताया?
अब जब आप ‘अजय की जेल डायरी’ पर इंटरव्यू कर रहे हैं तो बुक का नाम भी ‘जेल डायरी’ ही रखूंगा।
जेल में मानसिक तनाव दूर करने के लिए क्या मनोवैज्ञानिक तरीके हैं?
जेल में इन सब बातों का बड़ी बारीकी से ध्यान रखा जाता है। समय-समय पर इस तरह के आयोजन किए जाते हैं वहां पर। योगा की क्लास भी होती हैं। बाहर से धर्मगुरु भी आते हैं। वे भी वहां पर भाषण-वगैरा देते हैं। हर पंद्रह दिन, महीने बाद वहां पर कल्चरल एक्टिविटी के प्रोग्राम भी चलते रहते हैं। कभी कोई पंजाबी हो गया, कभी हरियाणावी हो गया। कभी कोई मिक्स हो गया ताकि कैदियों पर जो मानसिक तनाव है, उससे उन्हें मुक्ति मिल सके। सबसे बड़ी बात, दो नंबर जेल। जिसमें मैंने सजा भी काटी है। वहां बहुत बड़ी फैक्टरी भी थी। इसमें बहुत सारे प्रोडक्ट बनते हैं। फूड आइटम से लेकर फर्नीचर तक। शूज और कपड़े सहित हर तरह की चीजें वहां पर बनती हैं। और उसी फैक्टरी के इंचार्ज मनु शर्मा थे, जो पूरी फैक्टरी को चलाते थे। जब तक उन्होंने काम किया वे उसे प्रोफिट में लेकर भी आए।
मनु शर्मा से याद आया, ऐसा भी कहते हैं कि आपका और मनु का खाना साथ आता था?
हां, यह बात सही है कि हम दोनों का खाना इकट्ठा ही आता था। वहां पर अलग से किचन भी थी। मनु शर्मा मैस के नहीं, फैक्टरी के इंचार्ज थे। राजनीति अपनी जगह है लेकिन उनके साथ हमारे सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते रहे हैं।
जेल में तो संगीन क्राइम के बदमाश भी रहे होंगे?
वे भी सारे उसी जेल में थे। वहां के हाई-रिस्क वार्ड में हार्डकोर क्रिमिनल, टेरेरिस्ट रहते थे।
हार्डकोर कैदियों को सुधारने में आपका कोई योगदान?
नहीं, वहां तो उनका वार्ड ही अलग होता था। वे सेपरेट वार्ड में रखे जाते थे। बाकी जेल के कैदियों के साथ उनका संपर्क नहीं होता था। वो तो कभी भूले-बिसरे जब ड्योढ़ी में मुलाकात होती थी तो उनसे भी मुलाकात हो जाती थी।
हार्डकोर कैदियों के साथ आप रहे। आप कौन हैं! हार्डकोर पॉलिटिशियन?
अब कैदी थे तो कैदी थे। अब पॉलिटिशियन हैं तो राजनीति कर रहे हैं।
बाहर पार्टी में हो रहे विघटन का असर जेल के अंदर पिता-पुत्र के रिश्तों पर पड़ा?
नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसा भी नहीं है कि वहां इकट्ठे रहना कोई मजबूरी थी। शुरू से ही चौटाला साहब और मैं इकट्ठे रहे। इतना ही नहीं, आखिरी दिनों में भी इकट्ठे ही रहे।
कुल कितने दिन जेल में रहे और आपके पिताजी ने कितने दिन की सजा काटी?
मैं लगभग साढ़े सात साल जेल में रहा। चौटाला साहब मुझसे छह महीने पहले बाहर आ गए थे।
चौ़ देवीलाल का परिवार कुल कितने साल जेल में रहा?
एक बार प्रकाश सिंह बादल जी हमसे मिलने आए। तब उन्होंने बताया था कि चौ़ देवीलाल साढ़े 16 साल जेल में रहे। वे आजादी की लड़ाई में भी शामिल हुए और एमरजेंसी में भी जेल गए। चौटाला साहब भी जेल गए।
यानी जितने साल जेल में संघर्ष किया, सत्ता भी उतनी ही भोगी?
जेल में किन परिस्थितियों में और क्यों जाना पड़ा, ये सब जानते हैं। चौ़ देवीलाल जी ने हमेशा मजदूर और कमेरे वर्ग की आवाज उठाई। एमरजेंसी में भी उन्हें सजा भुगतनी पड़ी। लोगों की आवाज उठाने और संघर्ष के समय बड़ी से बड़ी मुश्किल में भी पीछे नहीं हटना, हमने चौ़ देवीलाल से ही सीखा है। रही बात सत्ता की, तो राजनीति में ये उतार-चढ़ाव चलते रहते हैं। जनता जनार्दन जो फैसला करती है, वह सिर-माथे होता है।
अभय और दुष्यंत का झगड़ा चल रहा था। ओपी चौटाला नाराज भी हुए। इसके बाद भी जेल में भी आपका मिलना-जुलना और खाना-पीना ऐसे ही रहा?
जेल में हमारे रिश्तों पर बाहर हुई राजनीतिक घटनाओं का कोई असर नहीं पड़ा। हम बिल्कुल उसी तरह से थे, जैसे पहले थे। ऐसी कोई बात नहीं थी।
चौटाला साहब, चौ़ रणजीत सिंह सहित पूरा परिवार राजनीतिक रूप से एक हो। ऐसा विचार आपके मन में कभी नहीं आया?
अब ये पहल तो बड़ों को करनी है। वो करें तो हो सकता है कुछ भी। असंभव थोड़े ही होता है। चौटाला साहब तो स्वयं ही कहते हैं कि राजनीति में कोई चीज असंभव नहीं है।
जेल रहते हुए पत्नी और बच्चों से मिलना कैसे होता था। दूरियां तो खली होंगी?
कमी तो खलती ही है, पर परिवार के लोग मुझसे मिला करते थे। पर पीछे से उन्होंने अपने आप को संभाला। जो दायित्व सामजिक तौर पर उनके बनते हैं, राजनीतिक तौर पर बनते हैं, उनको निभाने का काम उन्होंने किया।
चौटाला साहब को सबसे अच्छा वक्ता मानते हैं। दुष्यंत को यह घुट्टी कहां से मिली कि वे आप सब को पीछे छोड़ गए?
घुट्टी तो क्या, राजनीतिक परिवार में पैदा हुआ है। वक्त के थपेड़े इंसान को बहुत कुछ सिखाते हैं। हमने भी एमरजेंसी में बहुत कुछ सीखा। जब मैं टेन्थ का स्टूडेंट था, मेरा पूरा परिवार जेल में बंद था। चौ़ बंसीलाल उस वक्त प्रदेश के शासक हुआ करते थे। उनके नाम पर घास जलती थी फूंक मारते थे तो। हमारे जितने परिवार को उस दौरान परेशानियों से गुजरना पड़ा, उसकी वजह से हमने भी बहुत कुछ सीखा। इसी तरह से अब मैं और चौटाला साहब जेल चले गए तो पीछे से दुष्यंत ने भी बहुत कुछ सीखा। दिग्विजय ने भी बहुत कुछ सीखा।
आपके परिवार में कई बार विघटन हुआ है। चौ़ देवीलाल की गद्दी को लेकर ओपी चौटाला और चौ़ रणजीत सिंह में टसल रही। फिर अभय और अजय में टकराव देखने को मिला। आने वाले समय में दुष्यंत और दिग्विजय में राजनीतिक महत्वाकांक्षा से टकराव नहीं होगा?
कौशल साहब, आप हमारे परिवार से पिछली चार पुश्तों से जुड़े रहे हैं। चौ़ देवीलाल जी के साथ आपने काम किया। फिर चौटाला और रणजीत जी के साथ किया। हमने भी आपके बहुत नजदीक रहकर आपसे सीखा था और आपने हमें सिखाया भी है। अब चौथी पीढ़ी आपके सामने है। ये तो महाभारतकाल से, सदियों से हम सुनते हैं कि भाई-भाई आपस में अलग होते हैं। मुझे कोई ऐसा बताओ, जो अलग न हुए हों। मेरी दिली-इच्छा ये है कि सामाजिक दूरियां नहीं होनी चाहिए।
आप अपने बैठे-बिठाए ऐसा कोई इंतजाम कर रहे हो क्या कि आने वाले समय में परेशानी न हो?
ये तो राजाओं के राज में हुआ करता था। प्रजातंत्र में ऐसा नहीं होता। प्रजातंत्र में जनशक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति है। यह फैसला लोगों को करना है कि किसे क्या देना है। ये निर्णय तो जनता के हाथ में है, मेरे हाथ में नहीं।
दुष्यंत, दिग्विजय जैसे युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?
मैंने कहा न कि विचारधारा में मतभेद तो होते रहते हैं पर सामाजिक तौर पर हमें एक रहना चाहिए। ये सोच हमारी होनी चाहिए। इसी सोच को लेकर नई पीढ़ी के लोगों को आगे बढ़ना चाहिए ताकि उसके सार्थक परिणाम निकलें। प्रदेश को देश को हम कैसे आगे बढ़ाएं, राजनीतिक तौर पर सेवा करते हुए, ये सोच लेकर हमें आगे चलना चाहिए।
आखिर में द ट्रिब्यून, दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून के पाठकों को क्या संदेश देंगे। आपको पता भी होगा कि ट्रिब्यून ग्रुप को करीब 150 साल होने जा रहे हैं और यह देश के सबसे लोकप्रिय समाचार पत्रों की त्रिवेणी का संगम है। क्या कहेंगे?
पहले मुझे दो तो सही अखबार। (तीनों अखबार हाथ में आते ही) ट्रिब्यून ग्रुप जिंदाबाद। मैं तो सुबह उठते ही सबसे पहले दैनिक ट्रिब्यून अखबार पढ़ता हूं। ये मेरी पहले दिन से ही रुचि है। इसमें मुझे पूरे प्रदेश की खबरें मिलती हैं। बाकी तो आजकल जिलेवाइज अखबारें छपती हैं। किसी एक जिले का, तहसील तक भी। कुछ जिलों के तीन-तीन चार-चार एडिशन आते हैं। इसमें पूरे प्रदेश की न्यूज मिलती हैं। बदले सियासी हालात
अजय सिंह चौटाला देश के उपप्रधानमंत्री रहे स्व़ चौ़ देवीलाल के पोते हैं। उनके पिता ओमप्रकाश चौटाला इनेलो सुप्रीमो हैं और प्रदेश के सीएम रह चुके हैं। पिता-पुत्र की राजनीतिक राहें अब पूरी तरह से अलग हैं। अजय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र दुष्यंत सिंह चौटाला हरियाणा सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं और उनके छोटे बेटे दिग्विजय सिंह चौटाला पार्टी के प्रधान महासचिव हैं। जेल की सलाखों के बाद बदले हुए राजनीतिक हालात में उनकी धर्मपत्नी नैना सिंह चौटाला को भी राजनीति में उतरना पड़ा। नैना, देवीलाल परिवार की पहली महिला रहीं, जो सियासत में उतरीं। 2014 में वे इनेलो टिकट पर डबवाली हलके से विधायक बनीं। 2018-19 में परिवार और पार्टी में हुए मनमुटाव के चलते अजय पुत्र दुष्यंत ने जेजेपी का गठन किया। अब नैना बाढड़ा से विधायक हैं।
एक नज़र इधर भी
प्रदेश के आम लोगों ने डॉ़ अजय सिंह चौटाला में उनके दादा चौ़ देवीलाल की परछाई देखी। पार्टी संगठन पर उनका मजबूत कंट्रोल रहा। 1980 में अजय सिंह ने सक्रिय राजनीति में कदम रखा। पार्टी में अहम पदों पर रहे। प्रधान महासचिव भी बने। वे हरियाणा ही नहीं, राजस्थान से भी विधायक रहे हैं। 1989 में वे राजस्थान के दाता रामगढ़ तथा 1993 में नोहर हलके से विधायक बने। 1999 के लोकसभा चुनावों में अजय सिंह ने भिवानी सीट से चुनाव जीता। इसके बाद वे 2004 में राज्यसभा सांसद भी बने। 2009 के विधानसभा चुनावों में अजय ने डबवाली हलके से चुनाव जीता।
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