गोपेश्वर (उत्तराखंड), 8 फरवरी (एजेंसी)
अधूरे ज्ञान के आधार पर हिमालय से हो रही छेड़छाड़ को रोकने की वकालत करते हुए चिपको आंदोलन के नेता एवं मैगसेसे पुरस्कार विजेता चंडी प्रसाद भट्ट ने सोमवार को कहा कि चमोली के रैणी क्षेत्र में रविवार को ऋषिगंगा नदी में आयी बाढ़ इसी का नतीजा है। वर्ष 2014 के अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित 87 वर्षीय भट्ट ने यहां बताया कि ऋषिगंगा और धौली गंगा में जो हुआ वह प्रकृति से खिलवाड़ करने का ही परिणाम है। उन्होंने कहा कि हिमालय नाजुक पर्वत है और टूटना बनना इसके स्वभाव में है। उन्होंने कहा, ‘भूकंप, हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियर, तालों का टूटना और नदियों का अवरूद्ध होना आदि इसके अस्तित्व से जुड़े हुए हैं।’
‘अति मानवीय हस्तक्षेप को हिमालय का पारिस्थितिकीय तंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकता’
भट्ट ने कहा कि अति मानवीय हस्तक्षेप को हिमालय का पारिस्थितिकीय तंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकता है। वर्ष 1970 की अलकनन्दा की प्रलयंकारी बाढ़ का जिक्र करते हुए चिपको नेता ने कहा कि उस साल ऋषिगंगा घाटी समेत पूरी अलकनन्दा घाटी में बाढ़ से भारी तबाही हुई थी जिसने हिमालय के टिकाउ विकास के बारे में सोचने को मजबूर किया था। उन्होंने कहा कि इस बाढ़ के बाद अपने अनुभवजनित ज्ञान के आधार पर लोगों ने ऋषिगंगा के मुहाने पर स्थित रैणी गांव के जंगल को बचाने के लिए सफलतापूर्वक चिपको आंदोलन आरम्भ किया जिसके फलस्वरूप तत्कालीन राज्य सरकार ने अलकनन्दा के पूरे जलागम के इलाके में पेड़ों की कटाई को प्रतिबंधित कर दिया था।
‘13 मेगावाट की परियोजना को गुपचुप स्वीकृति देना आपदाओं के लिए जमीन तैयार करने जैसा’
भट्ट ने कहा कि पिछले कई दशकों से हिमालय के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक बाढ़ और भूस्खलन की घटना तेजी से बढ़ रही है और 2013 में गंगा की सहायक नदियों में आयी प्रलयंकारी बाढ़ से न केवल केदारनाथ अपितु पूरे उत्तराखण्ड को इसके लिए गंभीर विश्लेषण करने के लिए विवश कर दिया है। उन्होंने कहा कि ऋषिगंगा में घाटी की संवेदनशीलता को दरकिनार कर अल्प ज्ञान के आधार पर जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण को पर्यावरणीय स्वीकृति दे दी गई जबकि यह इलाका नन्दादेवी नेशनल पार्क के मुहाने पर है। उन्होंने कहा कि 13 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना की गुपचुप स्वीकृति देना इस तरह की आपदाओं के लिए जमीन तैयार करने जैसा है। उन्होंने कहा, ‘‘इस परियोजना के निर्माण के बारे में जानकारी मिलने पर मुझे बहुत दुख हुआ कि इस संवेदनशील क्षेत्र में इस परियोजना के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति कैसे प्रदान की गई जबकि हमारे पास इस तरह की परियोजनाओं को सुरक्षित संचालन के लिए इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र के बारे में कारगर जानकारी अभी भी उपलब्ध नहीं है।’ भट्ट ने सवाल उठाया कि परियोजनाओं को बनाने और चलाने की अनुमति और खासतौर पर पर्यावरणीय स्वीकृति तो बिना सवाल जबाव के मिल जाती है लेकिन स्थानीय जरूरतों के लिए स्वीकृति मिलने पर सालों इंतजार करना पड़ता है। ऋषिगंगा पर ध्वस्त हुई परियोजना के बारे में उन्होंने कहा कि उन्होंने आठ मार्च 2010 को भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री एवं उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित उच्चाधिकार समिति के सदस्य जीवराजिका को पत्र लिख कर इससे जुड़े पर्यावरणीय नुकसान के बारे में आगाह किया था तथा उसे निरस्त करने पर विचार करने का आग्रह किया था।