Pauranik Kahaniyan : गंगा मैया में धुलने के बाद आखिर कहां जाता है इंसान का पाप? जानिए दिलचस्प कथा
चंडीगढ़, 15 अप्रैल (ट्रिन्यू)
हिंदू धर्म में पाप को न केवल कर्मों के रूप में देखा जाता है बल्कि माना जाता है कि यह व्यक्ति के आत्मा के चित्त पर एक बोझ की तरह होता है। पाप को समाप्त करने के लिए व्यक्ति को भक्ति, पुण्यकर्म, तपस्या और ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि "जो व्यक्ति सच्चे मन से भगवान के पास जाता है, उसका सभी पाप समाप्त हो जाते हैं।"
हिंदू धर्म में पाप (अधर्म) का विचार बहुत गहरे और जटिल हैं। यह केवल एक धार्मिक या नैतिक अपराध नहीं बल्कि व्यक्ति की आत्मा, उसके कर्म और समाज के प्रति दायित्व से जुड़ा हुआ है। मगर, क्या आपने सोचा है कि आखिर व्यक्ति का पाप कहां-कहां जाता है। चलिए आपको बताते हैं इससे जुड़ी पौराणिक कथा...
मां गंगा में धोते हैं पाप तो...
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार ऋषि ने सोचा कि गंगा मैया में सभी लोग पाप धोते हैं तो इस तरह मां भी पापी हो जाएगी। उन्होंने मां घोर तपस्या की और तब देवगण ने उन्हें दर्शन दिए। तब ऋषि ने देवगण से पूछा कि सभी लोग गंगा में पाप धोते हैं, लेकिन वह जाता कहां है। तब भगवान ने कहा कि चलो इस बारे में मां गंगा से ही पूछते हैं। ऋषि और भगवान दोनों ने पूछा कि हे गंगे! सब लोग तुम्हारे यहां पाप धोते हैं तो इसका मतलब क्या आप भी पापी हुईं?
तब मैया ने कहा कि मैं तो सभी पाप लेकर समुद्र में अर्पित कर देती हूं तो फिर मैं कैसे पापी हुई। ऋषि और भगवान ने समुद्र देव से पूछा कि हे सागर! गंगा सभी पाप आपको अर्पित कर देती है तो क्या आप पापी हो गए? समुद्र ने कहा कि वो सभी पाप को भाप बनाकर बादल बना देता हूं, तो फिर वह कैसे पापी हुए।
कहां जाता है व्यक्ति का पाप
अब अपने सवाल का जवाब ढूंढने के लिए ऋषि और भगवान बादल के पास गए। बादलों ने कहा कि मैं तो सभी पाप को वापस वर्षा का रूप देकर धरती पर गिरा देता हूं और उसी जल से अन्न उपजता है, जिसे मानव स्वंय खाता है। वह अन्न जिस मानसिक स्थित से उगाया, काटा व खाया जाता है व्यक्ति की मानसिकता उसी आधार पर बनती है। कहा जाता है कि 'जैसा खाए अन्न, वैसा बनता मन।' ऐसे में भोजन हमेशा शांत मन से ग्रहण करना चाहिए।
हिंदू धर्म में पाप का अर्थ
हिंदू धर्म में पाप का अर्थ होता है वह कर्म या कार्य जो धर्म (सत्य, अच्छाई और सद्गति) से विपरीत होते हैं। पाप को "अधर्म" भी कहा जाता है, जो व्यक्ति के आत्मा और समाज के हित के खिलाफ होता है। यह कर्म किसी व्यक्ति की अंतरात्मा की अशुद्धता का कारण बनता है, जिससे उसे आत्मिक और भौतिक दोनों तरह का कष्ट उठाना पड़ता है।