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वाराणसी में प्रधानमंत्री को सिर्फ प्रतीकात्मक चुनौती!

कृष्ण प्रताप सिंह कांग्रेस ने वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले अपने स्थानीय नेता अजय राय को (जो कभी भाजपा के रास्ते पार्टी में आये और अब यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं) फिर मैदान में उतारकर पक्का कर दिया...
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कृष्ण प्रताप सिंह

कांग्रेस ने वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले अपने स्थानीय नेता अजय राय को (जो कभी भाजपा के रास्ते पार्टी में आये और अब यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं) फिर मैदान में उतारकर पक्का कर दिया है कि इस वीवीआईपी लोकसभा सीट पर प्रतीकात्मक लड़ाई

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ही होगी।

गत लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री ने सपा बसपा गठबंधन की प्रत्याशी शालिनी यादव को चार लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था, तो अजय राय 1,52,548 मत पाकर तीसरे स्थान पर खिसक गये थे। वर्ष 2014 के मुकाबले में भी वह अरविंद केजरीवाल के बाद तीसरे स्थान पर ही रहे थे और उन्हें 75,614 वोट ही मिल पाये थे। इतना ही नहीं, मुकाबले की सारी सुर्खियां भी उनके बजाय आम आदमी पार्टी (आप) के अरविंद केजरीवाल बटोर ले गये थे, जिन्हें 2,09,238 वोट मिले थे।

अलबत्ता, इस बार अजय राय महज कांग्रेस के नहीं, सपा-कांग्रेस गठबंधन (इंडिया) के प्रत्याशी हैं और 2019 में शालिनी को मिले 1,95,159 मतों के एक हिस्से के भी अपने खाते में जुड़ने की उम्मीद कर सकते हैं। शालिनी को जो वोट बसपा से गठबंधन के कारण मिले थे, वे स्वाभाविक ही बसपा की ओर जाएंगे, जिसने सैयद नियाज को खड़ा किया है। हालांकि बसपा ने पहले अतहर जमाल लारी को प्रत्याशी बनाया था, जिन्हें बदलकर नियाज़ को लाया गया।

दिलचस्प यह कि 2019 से पहले इस सीट ने कई यादगार और कांटे के मुकाबले देखे हैं। वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री और अरविंद केजरीवाल के मुकाबले ने भी खूब सुर्खियां बटोरी थीं। वर्ष 1977 में जनता पार्टी के प्रत्याशी चन्द्रशेखर (वह नहीं, जो बाद में प्रधानमंत्री बने) और कांग्रेस के राजाराम शास्त्री के बीच मुकाबले में इमरजेंसी से त्रस्त मतदाता खुद-ब-खुद चंद्रशेखर का प्रचार करने लगे थे।

1980 में ‘गुरु-शिष्य’ यानी कांग्रेसी दिग्गज कमलापति त्रिपाठी और टूटी हुई जनता पार्टी के एक धड़े के प्रत्याशी राजनारायण टकराये तो कहा जाता था कि 1977 में रायबरेली में राजनारायण के हाथों अपनी शिकस्त का बदला चुकाने के लिए इंदिरा गांधी ने कमलापति त्रिपाठी को उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके शिष्य से भिड़ा दिया। फिर भी कमलापति ने ‘मन से लड़ो मुझसे’ कहकर राजनारायण को चुनावी चंदा व जीत का आशीर्वाद दिया और गुरु धर्म निभाया था। यह और बात है कि इंदिरा गांधी की वापसी की आंधी में राजनारायण उड़ ही गये थे।

बनारस का वह मुकाबला था ‘नंबर वन’

बनारस के लोग 1957 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डाॅ. संपूर्णानंद (प्रतिष्ठित साहित्यकार व सम्पादक) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रुस्तम सैटिन के बीच हुए जिस मुकाबले को ‘नंबर वन’ बताते हैं, वह 1957 के विधानसभा चुनाव में शहर दक्षिणी सीट पर हुआ था। स्वतंत्रता सेनानी सैटिन 1952 में संपूर्णानंद से यह सीट हार गये थे, लेकिन 1957 में फिर उनके सामने आ डटे। माहौल ऐसा बना कि कांग्रेस समर्थक भी आत्मविश्वास खोकर कहने लगे थे, ‘अबकी तो पंडित (यानी सम्पूर्णानंद) गयो।’ लेकिन मतदान से दो दिन पहले कांग्रेस ने ‘हिंदू-मुसलमान’ पर उतरकर उनके सारे पासे पलट दिये। सैटिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बेनियाबाग में हुई एक सभा में भाकपा के डाॅ. फरीदी नाम के मुस्लिम नेता ने जोश में आकर कह दिया कि सैटिन पहले ही जीत चुके हैं और ‘मैं तो अपना कर्तव्य समझकर मरी हुई कांग्रेस की कब्र में दो मुट्ठी खाक डालने आया हूं।’ इसके बाद कांग्रेसी प्रचार करने लगे कि सैटिन और भाकपा का हिंदू संपूर्णानंद को मुस्लिम की तरह कब्र में दफनाने का मंसूबा है। रातों-रात पूरे क्षेत्र को ऐसे प्रचार वाले पोस्टरों से पाटकर भी संपूर्णानंद की जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाये कांग्रेसियों ने मतगणना में भी धांधली की। अचानक बिजली कटी (कहते हैं, काट दी गई) तो सैटिन के हजारों वोट सम्पूर्णानंद के वोटों की ढेरी में मिला दिये गये। दरअसल, तब मतदाता मुहर नहीं लगाते थे। बस, पसन्द के प्रत्याशी की मतपेटी में डाल आते थे। मतपेटी से निकाल देने के बाद पता नहीं लग पाता था कि कौन-सा मतपत्र किसकी मतपेटी से निकला है। बहरहाल, संपूर्णानंद सैटिन के 16578 के मुकाबले 29002 मत पाकर जीत भले ही गये, लेकिन उन्होंने चुनावी राजनीति से तौबा कर ली, जिसके बाद उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बना दिया गया।

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