Kolhapuri Chappal : अब क्यूआर कोड के साथ बिकेगी कोल्हापुरी चप्पल, नकली उत्पाद की बिक्री पर लगेगी रोक
Kolhapuri Chappal : भारत के सबसे प्रतिष्ठित पारंपरिक शिल्प में से एक कोल्हापुरी चप्पल न केवल घरेलू फैशन जगत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी नए सिरे से लोकप्रिय हो रही है। एक इतालवी ब्रांड प्रादा पर इस चप्पल के दुरुपयोग का आरोप लगा है। अपनी जटिल कारीगरी और सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध और भौगोलिक संकेतक (जीआई) के दर्जे वाली यह हस्तनिर्मित चमड़े की सैंडल को अब क्यूआर कोड के रूप में सुरक्षा और प्रामाणिकता की एक अतिरिक्त परत के साथ उपलब्ध है।
इसका श्रेय हालिया प्रौद्योगिकी और कानूनी नवोन्मेषण को जाता है। महाराष्ट्र के चमड़ा उद्योग विकास निगम (लिडकॉम) के अधिकारियों ने बताया कि इस कदम का उद्देश्य नकली कोल्हापुरी चप्पल की बिक्री पर रोक लगाना, प्रत्येक उत्पाद के पीछे कारीगर की पहचान को दर्शाना, उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ाना और पारंपरिक कारीगरों की बाजार में स्थिति को मजबूत करना है।
हाल ही में, इटली के लक्जरी फैशन ब्रांड प्रादा के नए कलेक्शन में कोल्हापुरी चप्पल जैसे दिखने वाले फुटवियर को शामिल किए जाने पर कारीगरों ने जीआई अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए विरोध जताया था। इस विवाद के बाद प्रादा ने स्वीकार किया था कि उसके पुरुषों के 2026 फैशन शो में प्रदर्शित सैंडल पारंपरिक भारतीय दस्तकारी वाले फुटवियर से प्रेरित थी। हालांकि, ब्रांड ने महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स को दिए एक जवाब में स्पष्ट किया है कि प्रदर्शित सैंडल डिजाइन के चरण में है।
अभी तक इनके व्यावसायिक उत्पादन की पुष्टि नहीं हुई है। प्रादा के विशेषज्ञों की एक टीम ने इस महीने की शुरुआत में कारीगरों से बातचीत करने और स्थानीय जूता-चप्पल विनिर्माण प्रक्रिया का आकलन करने के लिए कोल्हापुर का दौरा किया था। 12वीं शताब्दी से चली आ रही यह चप्पल मुख्य रूप से महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली और सोलापुर जिलों में तैयार की जाती रही है।
प्राकृतिक रूप से टैन किए गए चमड़े और हाथ से बुनी हुई पट्टियों से बना इनके विशिष्ट डिजाइन को कारीगरों की पीढ़ियों द्वारा संरक्षित किया है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में इसे एक बड़ा बढ़ावा मिला जब दूरदर्शी शासक छत्रपति शाहू महाराज ने इसे आत्मनिर्भरता और स्वदेशी गौरव के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया। उन्होंने इन चप्पलों के उपयोग को प्रोत्साहित किया, जिससे ग्रामीण शिल्प को एक सम्मानित कुटीर उद्योग के रूप में विकसित करने में मदद मिली।