Fake Encounter Case : 32 साल पुराने फर्जी मुठभेड़ मामले में पूर्व एसपी को 10 साल की कैद, सहआरोपी ASI की ट्रॉयल के दौरान मौत
मोहाली की सीबीआई कोर्ट ने 1993 के एक और फर्जी मुठभेड़ मामले में अहम फैसला सुनाया। मामले में पंजाब पुलिस के पूर्व एसपी परमजीत सिंह (67) को 10 साल की कैद व 50 हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई है। उसके सहआरोपी रहे एएसआई रामलुभाया की ट्रॉयल के दौरान मौत हो चुकी है। वहीं सीबीआई कोर्ट ने इस मामले में पुलिस मुलाजिम धर्म सिंह, कश्मीर सिंह व दरबारा सिंह को सबूतों की कमी के चलते बरी कर दिया। उन पर आरोप था कि उन्होंने पंजाब पुलिस में तैनात दो मुलाजिमों को घर से उठाया गया, अवैध हिरासत में रखा गया।
मजीठा पुलिस द्वारा अज्ञात के रूप में मुठभेड़ में मारा गया दिखा दिया। उनके शवों का लावारिस के रूप में अंतिम संस्कार कर दिया गया। बलजिंदर सिंह सरा की अदालत ने पूर्व इंस्पेक्टर परमजीत सिंह, तत्कालीन एसएचओ ब्यास को आईपीसी की धारा 343 यानी गलत तरीके से बंधक बनाने और आईपीसी की धारा 364 यानी हत्या के उद्देश्य से अपहरण करने का दोषी ठहराया।
सीबीआई के लोक अभियोजक अनमोल नारंग ने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सीबीआई ने मामले की जांच की, जिसमें पाया गया कि सुरमुख सिंह निवासी गांव मुच्छल तहसील बाबा बकाला अमृतसर जोकि पंजाब पुलिस में कांस्टेबल था, को 18 अप्रैल1993 को सुबह लगभग 6 बजे परमजीत सिंह तत्कालीन थाना ब्यास अमृतसर के एसएचओ के नेतृत्व वाली पुलिस पार्टी ने उसके घर से उठाया था। उसी दिन दोपहर 2 बजे एक अन्य युवक सुखविंदर सिंह निवासी खेला अमृतसर जो पंजाब पुलिस में कांस्टेबल था, को भी एसआई राम लुभाया थाना ब्यास अमृतसर के नेतृत्व में पुलिस ने उसके घर से उठा लिया था।
सीबीआई जांच में यह भी पता चला कि अगले दिन यानी 19 अप्रैल 1993 को सुखविंदर सिंह की मां बलबीर कौर अपने पति दिलदार सिंह के साथ थाना ब्यास गई लेकिन राम लुभाया ने उन्हें सुखविंदर सिंह से मिलने की अनुमति नहीं दी। दूसरी ओर 22 अप्रैल 1993 को जिला मजीठा पुलिस ने अमृतसर के लोपोके थाना के तत्कालीन एसएचओ धर्म सिंह के नेतृत्व में पुलिस पार्टी, सीआईए स्टाफ और सीआरपीएफ पार्टी के साथ मुठभेड़ में दो अज्ञात आतंकवादियों को मारने का दावा किया। इस संबंध में 23 अप्रैल 1993 को यू/एस की धारा 307/34 व आम्र्स एक्ट की धारा 25/54/59 और टाडा एक्ट की धारा 5 के तहत थाना लोपोके में मामला दर्ज किया गया और उनके शवों का लावारिस के रूप में अंतिम संस्कार कर दिया गया।
हैरानी की बात है कि इस कथित मुठभेड़ मामले में एक सप्ताह के भीतर ही इंस्पेक्टर धर्म सिंह, तत्कालीन एसएचओ थाना लोपोके द्वारा अनट्रेस रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, जिसमें उल्लेख किया गया कि शवों की पहचान नहीं की गई है और आगे जांच की कोई आवश्यकता नहीं है। बाद में, सीबीआई जांच में यह साफ हुआ कि लोपोके पुलिस द्वारा 22 अप्रैल1993 को मुठभेड़ में मारे गए दिखाए गए दो युवक वास्तव में सुखविंदर सिंह और सुरमुख सिंह थे सीबीआई जांच में यह भी साबित हुआ कि मुठभेड़ को वास्तविक साबित करने के लिए पुलिस द्वारा दस्तावेजों में हेराफेरी की गई थी। पंजाब पुलिस द्वारा बड़े पैमाने पर शवों का लावारिस के रूप में अंतिम संस्कार करने का मामला भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 15 नवंबर 1995 को सीडब्ल्यूपी 497/1995 में पारित आदेश द्वारा सीबीआई को सौंप दिया गया था।
इन आदेशों के अनुसरण में सीबीआई द्वारा 26 दिसंबर 1995 को प्रारंभिक जांच दर्ज की गई और जांच के दौरान दिलदार सिंह की पत्नी बलबीर कौर का बयान 21 नवंबर 1996 को दर्ज किया गया। उसने आरोप लगाया कि उसके बेटे सुखविंदर सिंह, जो पंजाब पुलिस का कर्मचारी है, को 18 अप्रैल 1993 को एसआई राम लुभाया एसएचओ पीएस ब्यास द्वारा उसके निवास से उठाया गया था और प्रयासों के बावजूद उसे रिहा नहीं किया गया। उस समय यह आशंका जताई गई कि पुलिस ने उसकी हत्या कर दी है और बाद में लावारिस के रूप में उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। मामले के संबंध में सीबीआई द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पांच स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत की गई और फिर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद सीबीआई द्वारा 28 फरवरी 1997 को मामला दर्ज किया गया। जांच तत्कालीन इंस्पेक्टर सीबीआई अशोक कुमार को सौंपी गई, जिन्होंने 22 अप्रैल1993 की मुठभेड़ को फर्जी पाया और 1 फरवरी1999 को आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया।
इस आरोप पत्र में एसआई राम लुभाया, तत्कालीन प्रभारी पुलिस पोस्ट बटाला, इंस्पेक्टर धर्म सिंह, तत्कालीन एसएचओ पीएस लोपोके, इंस्पेक्टर परमजीत सिंह तत्कालीन एसएचओ ब्यास और एएसआई कश्मीर सिंह और एएसआई दरबारा सिंह पुलिस स्टेशन लोपोके के खिलाफ साजिश, अपहरण, अवैध कारावास, रिकॉर्ड में हेराफेरी और सबूत नष्ट करने का आरोप लगाया गया। पीडि़त परिवारों के वकील सरबजीत सिंह वेरका ने बताया कि हालांकि आरोपियों के खिलाफ 9 सितंबर 1999 के आदेश के तहत आरोप तय किए गए थे, लेकिन 2001-2016 और फिर 2016-22 की अवधि के दौरान आरोपियों की निराधार याचिकाओं के आधार पर, जो बाद में स्पष्ट रूप से खारिज कर दी गईं।
उच्च न्यायालयों द्वारा वर्तमान मामले की सुनवाई स्थगित रखी गई। विलंबित सुनवाई के दौरान केवल 27 गवाहों के बयान दर्ज किए गए, क्योंकि कुछ की विलंबित सुनवाई के दौरान मृत्यु हो गई थी और कुछ को आरोपियों ने अपने पक्ष में कर लिया था और आरोपी पुलिस अधिकारियों के पक्ष में गवाही दे दी थी। यहां तक कि राम लुभाया नामक एक आरोपी की भी सुनवाई के दौरान मृत्यु हो गई, लेकिन यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंतत 32 वर्षों के बाद कोर्ट ने फैसला सुनाया।