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संविधान प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द पर फैसला साेमवार को

ऐसा नहीं कि आपातकाल में संसद ने सब निरर्थक किया : सुप्रीम कोर्ट
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नयी दिल्ली, 22 नवंबर (एजेंसी)

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्द जोड़ने वाले 1976 के संशोधन की अदालत द्वारा कई बार न्यायिक समीक्षा की गयी है और यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय (आपातकाल में) संसद ने जो कुछ भी किया, वह सब निरर्थक था।

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चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य की उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिनमें संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई है।

इन शब्दों को 1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था। प्रस्तावना में भारत के वर्णन को ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’ से बदलकर ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ किया गया था।

अदालत ने मामले को वृहद पीठ को भेजने से इनकार कर दिया और कहा कि वह 25 नवंबर को फैसला सुनाएगी। पीठ ने कहा, ‘भारत में समाजवाद को हम जिस तरह समझते हैं, वह अन्य देशों से बहुत अलग है। हमारे संदर्भ में, समाजवाद का मुख्य अर्थ कल्याणकारी राज्य है। इसने कभी भी निजी क्षेत्र को नहीं रोका, जो अच्छी तरह से फल-फूल रहा है। हम सभी को इससे लाभ हुआ है।’ जस्टिस खन्ना ने कहा कि शीर्ष अदालत ने 1994 के एसआर बोम्मई मामले में धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना था।

अधिवक्ता जैन ने दलील दी कि संविधान में 1976 का संशोधन लोगों की बात सुने बिना आपातकाल के दौरान पारित किया गया था और इन शब्दों को इसमें शामिल करने का अर्थ लोगों को विशिष्ट विचारधाराओं का पालन करने के लिए मजबूर करना है। अन्य याचिकाकर्ता अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रस्तावना में इन्हें शामिल किये जाने का विरोध करते हैं। उन्होंने दलील दी कि 42वें संशोधन को राज्यों द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया।

‘प्रस्तावना संविधान से अलग नहीं’

पीठ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है और यह शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित है। अदालत ने कहा, ‘प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। यह अलग नहीं है।’ पीठ ने स्पष्ट किया कि अदालत इसकी समीक्षा नहीं करेगी कि 1976 में लोकसभा संविधान में संशोधन नहीं कर सकती थी तथा प्रस्तावना में संशोधन करना संविधान प्रदत्त शक्ति थी, जिसका प्रयोग केवल संविधान सभा द्वारा किया जा सकता था।

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