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Allahabad High Court : कानून विशेषज्ञों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी को बताया निंदनीय, कहा- इससे न्यायपालिका में लोगों का कम होता है भरोसा

शीर्ष अदालत ने यौन अपराधों को कमतर करके आंकने की निंदा की थी
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नई दिल्ली, 21 मार्च (भाषा)

Allahabad High Court : कानून विशेषज्ञों ने यौन अपराध जुड़े एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से सुनाए गए फैसले में की गई उस टिप्पणी की शुक्रवार को निंदा की, जिसमें कहा गया है कि किसी लड़की के निजी अंग को पकड़ना और उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ना दुष्कर्म या दुष्कर्म के प्रयास का मामला नहीं माना जा सकता। कानून विशेषज्ञों ने न्यायाधीशों से संयम बरतने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि इस तरह की टिप्पणियों से न्यायपालिका में लोगों का भरोसा कम होता है।

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अब “पुन: जागृत होने” का समय आ गया

वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता पिंकी आनंद ने कहा कि मौजूदा दौर में, खासतौर पर सतीश बनाम महाराष्ट्र राज्य जैसे मामलों के बाद, जिसमें शीर्ष अदालत ने यौन अपराधों को कमतर करके आंकने की निंदा की थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने बलात्कार के प्रयास जैसे जघन्य अपराध को कमतर करके आंका है, जो न्याय का उपहास है।

लड़की के निजी अंगों को पकड़ने, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ने, उसे घसीटकर पुलिया के नीचे ले जाने की कोशिश करने और केवल हस्तक्षेप के बाद ही भागने जैसे तथ्यों के मद्देनजर यह मामला पूरी तरह से बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में आता है, जिसमें 11 वर्षीय लड़की के साथ बलात्कार की मंशा से हर संभव हरकत की गई। अब “पुन: जागृत होने” का समय आ गया है।

कानून का उल्लंघन करने वालों, महिलाओं व बच्चों के खिलाफ अपराध करने वालों को बख्शा नहीं जा सकता। यह फैसला स्पष्ट रूप से गलत है, क्योंकि यह इस बात को नजरअंदाज करता है। मुझे पूरा भरोसा है कि इस तरह के फैसले को उचित तरीके से पलटा जाएगा और न्याय होगा। वरिष्ठ अधिवक्ता और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल ने ‘एक्स' पर एक पोस्ट में कहा कि भगवान ही इस देश को बचाए, क्योंकि पीठ में इस तरह के न्यायाधीश विराजमान हैं! सुप्रीम कोर्ट गलती करने वाले न्यायाधीशों से निपटने के मामले में बहुत नरम रहा है। न्यायाधीशों, खासकर उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को ऐसी टिप्पणियां करने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे “समाज में गलत संदेश जाएगा। लोगों का न्यायपालिका पर से भरोसा उठ जाएगा।

वरिष्ठ अधिवक्ता विकास पाहवा ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की व्याख्या, बलात्कार के प्रयास की संकीर्ण परिभाषा देकर एक चिंताजनक मिसाल कायम करती प्रतीत होती है। निजी अंगों को पकड़ने, पायजामा उतारने और लड़की को घसीटकर पुलिया के नीचे ले जाने” जैसी कथित हरकतें स्पष्ट रूप से बलात्कार की मंशा की ओर इशारा करती हैं, जो संभवतः महज इरादे से कहीं आगे दुष्कर्म के प्रयास के दायरे में आती हैं। इस तरह के फैसलों से यौन हिंसा के पीड़ितों की सुरक्षा के प्रति न्यायिक प्रणाली की प्रतिबद्धता में जनता का विश्वास कम होने का खतरा है। ऐसे फैसले पीड़ितों को आगे आने से भी हतोत्साहित कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें डर होगा कि उनके साथ हुई हरकतों को कमतर आंका जाएगा या खारिज कर दिया जाएगा।

वरिष्ठ अधिवक्ता पीके दुबे ने पाहवा की राय से सहमति जताते हुए कहा कि इस तरह की व्याख्या उचित नहीं थी। न्यायाधीश के निजी विचारों के लिए कोई जगह नहीं है और उन्हें स्थापित कानून तथा न्यायशास्त्र का पालन करना चाहिए। यौन अपराधों से जुड़े मामलों में इस बात पर विचार किया जाता है कि क्या किसी भी रूप में यौन मंशा जाहिर हुई, साथ ही यह तथ्य भी देखा जाता है कि उक्त कृत्य से क्या पीड़ित को चोट पहुंची। यौन प्रवेशन जरूरी नहीं है और इस तरह की हरकतें भी यौन कृत्य के बराबर हैं, जिनके लिए व्यक्ति को सजा दी जा सकती है। पीड़िता के निजी अंग को छूना ही काफी है और यह बलात्कार के बराबर है।

बता दें कि, मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज में 11 साल की एक लड़की से जुड़ा है, जिस पर 2021 में दो लोगों ने हमला किया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने फैसला सुनाया कि केवल निजी अंगों को पकड़ना और पायजामा का नाड़ा तोड़ना बलात्कार के अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। ऐसा अपराध किसी महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से उस पर हमला करने या आपराधिक बल प्रयोग के दायरे में आता है।

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