दीपिका अरोड़ा
कभी खामोश बैठोगे, कभी कुछ गुनगुनाओगे।
मैं उतना याद आऊंगा, मुझे जितना भुलाओगे।
जब कभी भी गकाल गायकी की बात छिड़ती है तो जेहन में उभरने लगता है एक भोला-भाला, शर्मीला-सजीला चेहरा। लहजे में सादगी, मगर आवाज में पूरे जग को जीत लेने का दम। जगजीत सिंह। गायन विधा में पारंगत सुर जब आरोह-अवरोह की लयबद्धता को आत्मसात करते हुए नर्तन करते, तो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर झूम उठते। अपनी मखमली आवाज के जरिए दिल की गहराइयों में उतरने वाले ‘जगमोहन सिंह धीमान’ का जन्म 8 फरवरी, 1941 को श्रीगंगानगर में हुआ। आरम्भिक शिक्षा श्रीगंगानगर से प्राप्त करने के उपरान्त, 1959 में आगामी शिक्षा केन्द्र जालंधर का प्रतिष्ठित डीएवी कॉलेज बना। कुरुक्षेत्र विवि में दाखिला लिया। इतिहास में परास्नातक के साथ, पिता की इच्छा पूर्ति हेतु वे प्रशासनिक सेवाओं की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी की, लेकिन मन हमेशा संगीत में ही रमा रहा। प्रोफेसर सूरजभान दे प्रोत्साहित किया तो 1965 में मुंबई के लिए रवाना हो गए।
संगीत प्रेम तथा जालंधर से नाता
संगीत उन्हें अपने पिता से विरासत के रूप में मिला। श्रीगंगानगर में पंडित छगनलाल के सानिध्य में दो वर्ष तक शास्त्रीय संगीत सीखने से शुुरुआत हुई। आगे जाकर सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान साहिब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की बारीकियां सीखने का अवसर मिला। जालंधर से उनका गहरा नाता रहा। ऑल इंडिया रेडियो, जालंधर को, संगीत साधना में लीन, विज्ञान के विद्यार्थी, जगमोहन के स्वर्णिम भविष्य का प्रथम सोपान बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
मशहूर शायर निदा फाजली ने उनके बारे में कहा था, ‘पंजाब से एक युवक 500 रुपए जेब में लेकर मुंबई खरीदने निकला है।’ मंजिल तक पहुंचने का हौसला और जुनून था, मगर राह इतनी भी आसान न थी। खर्चा निकालने के लिए विज्ञापनों में जिंगल्स गाते तो कभी विवाह-समारोह में गाकर गुज़ारा करना पड़ता।
जगजीत-चित्रा की युगलबंदी
1967 में प्रसिद्ध गायिका चित्रा जी से मुलाकात हुई और 1969 में दोनों दांपत्य के अटूट बंधन में बंध गए। अनेक गीतों व गजलों में दोनों ने संयुक्त प्रस्तुति दी। उनकी युगलबंदी देखते ही बनती। 1980 के दशक में आया एलबम ‘द अनफॉरगेटेबल्स’ इस युगल स्वर की पहचान बन गया। एलबम की रिलीज से पहले ही जगमोहन, ‘जगजीत सिंह’ बन चुके थे। इस जोड़ी की बेमिसाल गायकी ने प्रसिद्धि के नए आयाम स्थापित किए। आत्मीय संबंध स्थापित करते हुए, दोनों कुछ इस तरह डूबकर गाते कि श्रोता भावविभोर हो उठते। अस्सी के दशक के अंत में दूसरे रिकॉर्ड ‘कम अलाइव’ को भी श्रोताओं की भरपूर सराहना मिली। इस रिकॉर्ड के माध्यम से एक नयी चीज पेश की गई, वह थी गजल प्रस्तुति के साथ-साथ, बातचीत तथा चुटुकलों के जरिए लाइव शो जैसा असर पैदा करना।
उनके द्वारा किए गए लाइव कॉन्सर्ट भी खासे लोकप्रिय हुए। 1982 में ‘लाइव एट रॉयल अल्बर्ट हॉल’ में आयोजित कॉन्सर्ट के टिकट मात्र तीन घंटे में बिक गए।
दूरदर्शन तथा फिल्में
दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक ‘मिर्जा गालिब’ में, किरदार को मद्देनजर रखते हुए, परम्परागत लीक से हटकर, हल्के-फुल्के अंदाज में किए गए गायन ने, गजल की दुनिया में उन्हें एक नयी पहचान दी। अर्थ, प्रेमगीत, लीला, सरफरोश, तुम बिन, वीर जारा जैसी फिल्मों ने उनकी मधुर आवाज को बुलंदी पर पहुंचाया। बंदिशों में दबी-घुटी गजल गायकी को मुक्त करके, प्रयोगात्मक दिशा में एक नयी उड़ान देने का श्रेय भी जगजीत सिंह को ही जाता है। सुरों को अपनी संगत से रवानगी देने वाले तबला, सारंगी, हारमोनियम आदि परम्परागत साजों के कुनबे में अब गिटार, बेस गिटार, सेक्सोफोन, वॉयलिन, ऑक्टोपेड, कीबोर्ड तथा स्पैनिश गिटार भी शामिल हो चुके थे। ‘कहकशां’ और ‘फेस टू फेस’ संग्रहों की कुछ गजलों में कोरस का अनोखा प्रयोग किया गया। ‘लीला’ फिल्म के गीत ‘जाग के काटी रैना’ में उन्होंने गिटार का अद्भुत प्रस्तुुतिकरण किया। तकनीक के साथ नए प्रयोग करना उन्हें बेहद भाता था। वे पहले गजल गुलुकार थे जिन्होंने चित्रा जी के साथ लंदन में, भारत की प्रथम डिजिटली रिकॉर्डेड कैसेट ‘बियॉन्ड टाइम’ जारी की। 2003 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया। फरवरी, 2014 में उनकी स्मृति में दो डाक टिकट भी जारी किए गए।
आम आदमी से जुड़ाव
गजल को खुला आसमान देते हुए जगजीत सिंह ने इसे अपेक्षाकृत लोकप्रिय बनाया। करोड़ों लोगों को अपना दीवाना बनाने वाले जगजीत ने मीरो-गालिब से लेकर फैज़-फिराक़ तक और गुलज़ार-निदा फाज़ली से लेकर राजेश रेड्डी और आलोक श्रीवास्तव तक, हर दौर के शायर को अपनी आवाज दी। उनकी गाई गजलों में इश्क की नरमी व पाकीज़गी के साथ ही, आम आदमी की खुरदरी जिंदगी की हकीकत भी जुड़ी थी, दबी ख़्वाहिशों का जि़क्र भी था, तन्हाई और उदासी का एहसास भी। ‘अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूं…’, ‘मैं रोया परदेस में …’ जैसी रचनाओं ने गजल न सुनने वालों का ध्यान भी आकर्षित किया। दशमेश गुरु गोबिंद सिंह जी के ‘मितर प्यारे नूं हाल मुरीदां दा कहणा’ को रुहानी आवाज देना हो या शिव बटालवी के कलमबद्ध जज़्बातों को नाजुक सुरों में पिरोना या फिर हस्तीमल ‘हस्ती’ जैसे उभरते शायरों को लोगों से परिचित कराना हो, जगजीत हमेशा ही आगे रहे। मंच पर प्रस्तुति देते समय जगजीत के कई रूप सामने आते। सुर-साजों का धाराप्रवाह संगम होता। सुर सवाल करता तो तबले की थाप जवाब देती, बाकी साज बारी-बारी अनुमोदन करते। एक जगजीत श्रोताओं की वाहवाही लूटते, एक जगजीत साजिंदों को तनिक विश्राम देने के ख्य़ाल से, चुटुकलों और लज्जतदार बातों से श्रोताओं को बांधे रखते और एक जगजीत, जो सिर्फ चित्रा के होते।
अमेरिकन कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट की प्रसिद्ध कविता ‘द रोड नॉट टेकन’ को उन्होंने अक्षरश: अपने जीवन में उतारा। अहमद फराका की एक गजल, ‘फिर उसी राहगुजर पर शायद, हम मिल सकें शायद’ को जगजीत ने अपने ही अंदाज़ में गाया। ‘शायद’ शब्द में अक्षर ‘द’ पर अधिक जोर देने के कारण गुलाम अली द्वारा की गई टिप्पणी को उन्होंने प्रतिद्वन्द्वात्मक स्तर पर गंभीरता से नहीं लिया। उनकी गाई ‘वारिस शाह की हीर’ सुनकर श्रोता अपनी सुध-बुध भूल बैठते।
चुनौतियों को मात
मखमली आवाज के इस जादूगर की जिंदगी में चुनौतियां भी कम न थी। 1991 में 20 वर्षीय पुत्र विवेक की सड़क दुर्घटना में मृत्यु ने चित्रा को बुरी तरह तोड़कर रख दिया। मगर जगजीत ने दिल के दर्द को सुरों के अथाह सागर में डुबो दिया।
अमर हैं जगजीत
जग को जीतने वाले अमर होते हैं, उन्हें भुला पाना मुमकिन नहीं। किसी शायर ने क्या खूब कहा है-
‘मौत का डर नहीं रहा तब से, ख़्वाब जगजीत हो गए जब से।’
बेमिसाल शख़्सियत के मालिक जगजीत अपने सुरों के माध्यम से आज भी संगीत प्रेमियों के हृदय में जिंदा हैं व हमेशा रहेंगे। 8 फरवरी को 81वें जन्मदिन पर चाहने वालों की ओर से उन्हें शत-शत नमन।