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समाज का संघर्ष-सपने भी दिखें फिल्मों में

फिल्मकार प्रकाश मेहरा
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दीप भट्ट

मुख्यधारा के सिनेमा में अपनी एक खास पहचान रखने वाले फिल्मकार प्रकाश मेहरा को अपने आखिरी दिनों में फिल्म निर्माण के लिए धन मिलना बंद हो गया था। कोई 14 बरस से वह फिल्म निर्माण से एकदम विरत थे, जबकि उन्हें इस मीडियम से जबरदस्त इश्क था। एक शाम मुंबई स्थित उनके ऑफिस में जब हिन्दी सिनेमा में आए बदलावों पर बात चली तो उनका दर्द जुबां पर आ गया। पेश है उनसे हुई विस्तृत बातचीत :

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हिन्दी सिनेमा में आए बदलाव पर कैसा महसूस करते हैं?

तकलीफ तो इतनी है कि 14 बरस से फिल्में नहीं बना पा रहा हूं। दरअसल, आज हर आदमी को चेंज पसंद है, पर चेंज ऐसा होना चाहिए कि लोग बोलें-वाह! मगर उसके लिए चाहिए दिमाग और राइटर।

पहले कहानी और पटकथा पर ज्यादा जोर होता था। आज सेटअप की बात होती है?

यह फाइनेंसर की समस्या है। आपकी पिक्चर में सलमान खान, शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय हैं, तो उनके लिए सेटअप बहुत अच्छा है। अभी हाल में गया था भरत शाह के पास अपनी एक फिल्म के सिलसिले में। मैंने उनसे कहा- भरत भाई, मेरा बजट है तीन करोड़। आप आधा-आधा बांट लीजिए, मैं फिल्म बना सकता हूं, सेटअप नहीं।

फिल्में अपनी जमीन से क्यों कटती जा रही हैं?

मैक्डोनॉल्ड कल्चर ने बेड़ा गर्क कर दिया है। यहां साउथ का कल्चर अलग है और हमारा नार्थ का कल्चर अलग। एक मिसाल देता हूं, साउथ की पिक्चर इंदिरा की। वहां का नंबर वन स्टार चिरंजीवी उसका हीरो है। हैदराबाद में इस फिल्म ने बीस करोड़ का बिजनेस किया। हीरो ने जान पर खेलकर विलेन के बेटे को बचाया, तो विलेन के सामने एक सवाल खड़ा हो गया। यह बड़ा होगा तो कॉलेज जाएगा। लोग बोलेंगे ये तो इंद्रसेन (बचाने वाला) की देन है। वह नहीं होता, तो यह गया था। सिर्फ इस बात पर वह पूरे परिवार के सामने मोटी तलवार अपने बेटे के पेट में उतार देता है। अब इस फिल्म ने 20 करोड़ का बिजनेस किया, तो कौन से कल्चर में रह रहे हैं हम!

आपके जमाने में माहौल कैसा था?

ह्यूमन वैल्यूज बहुत थी। प्रोड्यूसर लंच ब्रेक में प्रोडक्शन मैनेजर को बुलाकर पूछता था कि खाना सबके पास पहुंच गया। अब खाने की बात तो छोड़िए, कोई पानी के लिए नहीं पूछता। तो यह कल्चर शुरू किया हमारे यहां एक नामी निर्माता-निर्देशक ने।

‘जंजीर’ को लेकर राजकुमार वाला किस्सा बहुत मशहूर हुआ था। हकीकत क्या थी?

दरअसल जंजीर की स्क्रिप्ट लेकर मेरे पास सलीम-जावेद आए तो मैंने कहा किसी स्टार को लेना पड़ेगा। बोले, अरे! स्टार क्या होता है, फिल्म की स्क्रिप्ट स्टार होती है। फिर एक दिन दोनों का फोन आया, देवानंद साहब के ऑफिस में चले आओ। मैं नवकेतन के ऑफिस पहुंचा। देव ने कहा, इसमें दो-तीन गाने डाल दो। मैंने कहा यह गाने वाले मिजाज की फिल्म ही नहीं। फिर राजकुमार के यहां गया। राजकुमार ने कहा, जॉनी यह तो हमारी अपनी स्टोरी है। बोले, जिस फिल्म में हीरो नहीं गाए, लड़की के पीछे न भागे, ये कोई बात हुई जॉनी। यार जॉनी प्रकाश बस इतना को-आपरेट कर दीजिए कि इस फिल्म की शूटिंग मद्रास में कर दीजिए। मैंने कहा, राज जी मेरी फिल्म का बैकग्राउंड मुंबई का है। राजकुमार फिर बोले, जया की बजाय हीरोइन मुमताज को ले लो। मैं परेशान हो गया। मुमताज को लेने से फिल्म का बजट बढ़ता। मेरी समझ में आ गया, राजकुमार की इच्छा फिल्म करने की नहीं है। खैर फिर प्राण का फोन आ गया, बोले, एक लड़का आया है डॉ. हरिवंश राय बच्चन का। उसकी फिल्म लगी है बांबे टू गोआ। उसमें फाइट सीन देख लो, मुझे इस लड़के में कॉन्फिडेंस नजर आता है। मैंने जाकर फिल्म देखी, मुझे हीरो मिल गया।

‘जंजीर’ पर राजकपूर ने बेहद पॉजिटिव टिप्पणी की थी?

आरके स्टूडियो में जंजीर की शूटिंग करता था। राज साहब ने जंजीर का एक सीन सुना था, टेप रिकॉर्डर पर। अमिताभ को मारने का प्रस्ताव लेकर प्राण के पास आए गुंडों से प्राण कहते हैं-शेर बहुत कम हो गए हैं मुल्क में। शेरों को मारने की वैसे भी मनाही है। सीन सुनने के बाद राज साहब ने मुझे बुलाया। बोले, तेरी यह फिल्म बहुत बड़ी फिल्म है। गोल्डन जुबली हो तो मुझे भूलना मत।

लंबे समय से आपने फिल्म नहीं बनाई?

एक फिल्म के लिए हाल ही में भरत शाह के पास गया था। ‘ऑस्कर’ नाम रखा है। कहानी खुद लिखी है। हीरो के लिए विवेक ओबेराय और अर्जुन रामपाल के बारे में सोचा है। हीरोइन रानी मुखर्जी होंगी। आज जिस तरह अपने समाज, उसके संघर्ष व सपनों से कटी फिल्में बन रही हैं, उस पूरे कल्चर पर करारा व्यंग्य होगी यह फिल्म।

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