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छोटी फिल्म, बड़ी बात

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार

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सुषमा जुगरान ध्यानी

चार साल पहले सोशल मीडिया पर एक वीडियो के माध्यम से अपनी शॉर्ट फिल्म ‘एक था गांव’ के प्रमोशन के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों का सपोर्ट चाहने वाली सृष्टि लखेड़ा को आज ऐसे किसी प्रमोशनल वीडियो की जरूरत शायद नहीं होगी। आज लोग उनकी उत्तराखंड के गांवों से लगातार हो रहे पलायन जैसे गंभीर विषय पर बनी फिल्म को देखने के लिए लालायित हैं और इंटरनेट पर न केवल फिल्म बल्कि सृष्टि के बारे में भी जानने के लिए उत्सुक हैं। कारण, 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा के साथ ही उनकी ‘एक था गांव’को रातों रात राष्ट्रीय पहचान मिल गई है। एक घंटे की इस फिल्म को गैर फीचर फिल्म की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

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खाली होते गांव और जड़ों का मोह

दिन-ब-दिन अपने उत्तराखंड के खाली होते जा रहे गांवों की त्रासदी को बहुत ही नजदीक से देखने और महसूस करने वाली सृष्टि ने इस फिल्म की परिकल्पना से लेकर उसके निर्माण और निर्देशन तक का दायित्व स्वयं निभाया है। रोजगार और दैनिक जीवन की मूलभूत सुविधाओं के अभाव में एक के बाद एक भुतहा होते गांवों की एक समान पीड़ा का प्रतिनिधित्व करने वाले टिहरी गढ़वाल के कीर्तिनगर ब्लॉक के अपने गांव सेमला को केंद्र में रखकर बनाई गई इस फिल्म में सृष्टि ने दो पीढ़ियों के माध्यम से उत्तराखंड के गांवों की भूत, वर्तमान और भविष्य की तसवीर को देश-दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है कि कैसे मूलभूत सुविधाओं के अभाव के कारण रोजी-रोटी की तलाश और बेहतर जीवन जीने की लालसा में मौका पाते ही लोग बेहिचक अपने घर और खेत-खलिहान छोड़कर शहरों का रुख करते चले गये फिर कभी न लौटने के लिए। लेकिन कई लोग हैं जो आज भी अपनी जड़ों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं और बुढ़ापे में शारीरिक रूप से अशक्त होने के बावजूद घोर गरीबी और कठिनाइयों के बीच भी अपने ही घर गांव में रह रहे हैं।

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केंद्र में स्त्रियों की दो पीढ़ियों की जिंदगी

दूसरी ओर युवा या किशोर पीढ़ी के वही लोग गांवों में मजबूरी में रह रहे हैं जिनके पास वहां रहने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है और मौका पाते ही वहां से निकल पड़ते हैं। सृष्टि की यह दृष्टि और विचार गांव में रह रही 80 वर्षीय बुजुर्ग लीला देवी और 19 वर्षीय गोलू के इर्द-गिर्द घूमते हुए उत्तराखंड के गांवों की इसी असलियत का बखान करते हैं। इस मामले में यह भी गौरतलब है कि उत्तराखंड को जिलाये रखने में वहां की नारी शक्ति का ही सबसे बड़ा योगदान रहा है। इसीलिए पुरानी और नई पीढ़ी की दो स्त्रियों को ही कथा के केंद्र में रखा गया है।

पलायन बना फिल्म मेकिंग की प्रेरणा ...

उत्तराखंड के ऋषिकेश से स्कूली शिक्षा पूरी कर दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस से स्नातक और एवरग्रीन यूनिवर्सिटी ओलंपिया (वाशिंगटन) से मास्टर्स करने वाली सृष्टि 2015 में जब अपने गांव सेमला आई थीं तो उन्हें अपने बचपन की स्मृतियों का खुशहाल और रंगीन गांव कहीं नजर नहीं आया और न ही दिन-ब-दिन पलायन करते लोगों के मन में गांव छोड़ने का कोई मलाल दिखा। बस वहीं से सृष्टि के मन में इंसानों से खाली होते गांवों को लेकर एक फिल्म बनाने का विचार आया जिसे उन्होंने सीमित संसाधनों के साथ लॉकडान के समय हकीकत में बदल दिया और 2021 में निर्मित उनकी यह फिल्म राष्ट्रीय स्तर पर नॉन फीचर फिल्म की कैटेगरी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार पा गई।

पहाड़ के गांवों की हालत के प्रतीक

तीन साल पहले जारी फिल्म के ट्रेलर और उससे पहले सृष्टि द्वारा प्रस्तुत एक प्रमोशनल वीडियो में टुकड़ों-टुकडों में दिख रहे दृश्य निश्चित ही एक संवेदनशील और उद्देश्यपरक फिल्म का अहसास कराते हैं। पत्तियों से विहीन पेड़ की डाली पर बार-बार पक्षी का बैठना और उड़ना, 80 वर्षीय वृद्धा लीला देवी का एक अंधेरे कमरे से निकलकर दूसरे अंधेरे कमरे में जाना और वहां अंधेरी रसोई में लकड़ी जलाकर चूल्हे में हरी सब्जी छौंकना और छौंके की आवाज के साथ उससे निकली लपटों में क्षण भर के लिए उसका चेहरा दिख जाना पहाड़ के मरते गांवों का प्रतीक माना जा सकता है। लेकिन दूसरी ओर मनोयोग से हथेलियों की सहायता से रोटी पाथना और क्षण भर के लिए सही, आग की लपटों से पूरे कमरे का प्रकाशित हो जाना, उसके अंदर की इच्छाशक्ति और आशावाद का प्रतीक है। ऐसे ही उत्तराखंड के गांवों के भविष्य की प्रतीक 19 वर्षीय किशोरी गोलू के हाव भाव, टीवी का रिमोट हाथ में लिए उसकी आंखों का सूनापन और कुछ-कुछ सोचते हुए शून्य में टकटकी लगाकर देखते रहना भी भविष्य के उत्तराखंड के गांवों की एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। पुरानी और नई पीढ़ी के नजरिये से इन भाव और विचारों को बिना किसी संवाद के कैमरे की नजर से प्रस्तुत करने की कुशलता ने फिल्म को प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की लगती है।

टीम वर्क का कमाल

सृष्टि निर्मित, लिखित और निर्देशित इस उद्देश्यपरक फिल्म के दृश्यों को कैमरे में सहेजा है मंझे हुए कैमरामैन अमिथ सुरेंद्रन और काई टिलमैन ने। फिल्म की सह- निर्माता भामथी शिवपालन एक कुशल एडिटर का दायित्व निभाते हुए फिल्म को उस पूर्णता तक ले गई हैं जहां उसके सिर सर्वश्रेष्ठ नॉन फीचर फिल्म का सेहरा बंध गया।

उत्तराखंड सिनेमा को प्रथम राष्ट्रीय पहचान

कहना न होगा कि उत्तराखंड के सिनेमा के चार दशक से भी लंबे इतिहास में यहां के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश और समस्याओं पर सैकड़ों फिल्में बन चुकी हैं और आये दिन फिल्में रिलीज हो रही हैं लेकिन किसी भी फिल्म को राष्ट्रीय स्तर की पहचान अब तक नहीं मिली है। यह पहला मौका है जब राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में नॉन फिल्म की केटेगिरी में पलायन जैसी समस्या पर बनी एक घंटे की लघु फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म से पुरस्कृत किया गया है। सृष्टि और उनकी टीम इसके लिए बड़ी बधाई की पात्र है कि लॉकडाउन जैसे विकट समय में भी उन्होंने अपनी सृजनात्मकता जारी रख गांव में रहते हुए भी बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली।

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